Sudhir Kumar
॥ओम नारायण॥ मोक्ष प्राप्ति हेतु अर्जनीय एवम् ग्रहणीय दैवी-सम्पदाका भगवान द्वारा वर्णन । पोस्ट संख्या- (७) (पूर्व पोस्ट- ६में पूज्य स्वामीजी द्वारा 'अहिंसा' पर प्रवचनके पश्चात अब 'सत्य' तथा 'अक्रोध'को लेरहे हैं।) अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्। दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।। गीता- १६/२ सत्यम् -- अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके केवल दूसरोंके हितकी दृष्टिसे जैसा सुना, देखा, पढ़ा, समझा और निश्चय किया है, उससे न अधिक और न कम -- वैसा-का-वैसा प्रिय शब्दोंमें कह देना सत्य है। सत्यस्वरूप परमात्माको पाने और जाननेका एकमात्र उद्देश्य हो जानेपर साधकके द्वारा मन, वाणी और क्रियासे असत्य-व्यवहार नहीं हो सकता। उसके द्वारा सत्य-व्यवहार, सबके हितका व्यवहार ही होता है। जो सत्यको जानना चाहता है, वह सत्यके ही सम्मुख रहता है। इसलिये उसके मनवाणी शरीरसे जो क्रियाएँ होती हैं, वे सभी उत्साहपूर्वक सत्यकी ओर चलनेके लिये ही होती हैं। अक्रोधः -- दूसरोंका अनिष्ट करनेके लिये अन्तःकरणमें जो जलनात्मक वृत्ति पैदा होती है, वह क्रोध है। पर जबतक अन्तःकरणमें दूसरोंका अनिष्ट करनेकी भावना पैदा नहीं होती, तबतक वह क्षोभ है, क्रोध नहीं। परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यसे साधन करनेवाला मनुष्य अपना अपकार करनेवालेका भी अनिष्ट नहीं करना चाहता। वह इस बातको समझता है कि अनिष्ट करनेवाला व्यक्ति वास्तवमें हमारा अनिष्ट कभी कर ही नहीं सकता। यह जो हमें दुःख देनेके लिये आया है, यह हमने पहले कोई गलती की है, उसीका फल है। अतः यह हमें शुद्ध कर रहा है, निर्मल कर रहा है। जैसे, डॉक्टर किसी रुग्ण अङ्ग को काटता है, तो उसपर रोगी क्रोध नहीं करता, प्रत्युत उसे अच्छा मानता है, ठीक मानता है। उसके रुग्ण अङ्गको काटना तो उसे ठीक करनेके लिये ही है। ऐसे ही साधकको कोई अहितकी भावनासे किसी तरहसे दुःख देता है, तो उसमें यह भाव पैदा होता है कि वह मेरेको शुद्ध, निर्मल बनानेमें निमित्त बन रहा है अतः उसपर क्रोध कैसे? वह तो मेरा उपकार कर रहा है और भविष्यके लिये सावधान कर रहा है कि जो गलती पहले की है, आगे वैसी गलती न करूँ। जो लोग साधकका हित करनेवाले हैं, उसकी सेवा करनेवाले हैं, वे तो साधकको सुख पहुँचाकर उसके पुण्योंका नाश करते हैं। पर साधकको उनपर (उसके पुण्योंका नाश करनेके कारण) क्रोध नहीं आता। उनपर साधकको यह विचार आता है कि वे जो मेरी सेवा करते हैं, मेरे अनुकूल आचरण करते हैं, यह तो उनकी सज्जनता है, उनका श्रेष्ठ भाव है। परन्तु पुण्योंका नाश तो तब होता है, जब मैं उनकी सेवासे सुख भोगता हूँ। इस प्रकार साधककी दृष्टि सेवा करनेवालोंकी अच्छाई, शुद्ध नीयतपर ही जाती है। अतः साधकको न तो दुःख देनेवालोंपर क्रोध होता है और न सुख देनेवालोंपर। ॥ ओम नारायण ॥ क्रमशः गीताप्रेस गोरखपुरसे प्रकाशित 'श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका - परम पूज्य स्वामी रामसुखदासजी' से।
Sudhir Kumar
Very good evening dear friends 💐 कोई उनसे ये कह दे कि वो पर्दे से ज़रा निकले तो फिर गुलशन से भी शायद महकती सी सबा निकले उन्ही के ही इशारे जानती हैं सारी बरसातें वो ज़ुल्फ़ें खोल दें तो फिर न जाने क्या घटा निकले कई सालों से रखीं थी किताबों में वो तस्वीरें किताबें खोलता हूँ तो ये लगता है खुदा निकले मेरी नस नस में उनके रंग ही तो बहते रहते हैं जो खुद को काट लूँ तो रंग न जाने कौन सा निकले उन्हीं का नाम लेकर के मेरे अंदर है तन्हाई वो मुझको देख लें तो मेरे अंदर से ख़ला निकले कहीं ये शाम बतला देती है सब उनके ही बारे में मुझे इतनी खबर है कि वो कब निकले कहाँ निकले सबा- सुबह की हवा ख़ला- खालीपन, एकांत राज
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