ऋषयो पितरो देवा महाभूतानि धातवः ।
जङ्गमाजङ्गमं चेदं जगन्नारायणोद्भवम् ।।
योगो ज्ञानं तथा सांख्यं विद्याः शिल्पादि कर्म च ।
वेदाः शास्त्राणि विज्ञानमेतत्सर्वं जनार्दनात् ।।
(विष्णु सहस्रनाम)
ऋषि, पितर, देवता, पंचमहाभूत, धातुएँ और स्थावर जंगमात्मक सम्पूर्ण जगत --- ये सब भगवान नारायण से ही उत्पन्न हुए हैं.।
योग, ज्ञान, सांख्य, विद्याएँ, शिल्प आदि कर्म, वेद, शास्त्र और विज्ञान -- ये सब भगवान नारायण से उत्पन्न हुए हैं.।
"जय श्रीमन्नारायण महाप्रभु"
#जय_श्रीहरि_विष्णु
#शुभ_बृहस्पतिवार
ॐ नमो भगवते वासुदेवाये नमः ||
श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अशीतितम अध्याय
श्रीकृष्ण के द्वारा सुदामा जी का स्वागत
राजा परीक्षित ने कहा- भगवन्! प्रेम और मुक्ति के दाता परब्रह्म परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति अनन्त है। इसलिये उनकी माधुर्य और ऐश्वर्य से भरी लीलाएँ भी अनन्त हैं। अब हम उनकी दूसरी लीलाएँ, जिनका वर्णन आपने अब तक नहीं किया है, सुनना चाहते हैं।
ब्रह्मन्! यह जीव विषय-सुख को खोजते-खोजते अत्यन्त दुःखी हो गया है। वे बाण की तरह इसके चित्त में चुभते रहते हैं। ऐसी स्थिति में ऐसा कौन-सा रसिक- रस का विशेषज्ञ पुरुष होगा, जो बार-बार पवित्रकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण की मंगलमयी लीलाओं का श्रवण करके भी उनसे विमुख होना चाहेगा। जो वाणी भगवान के गुणों का गान करती है, वही सच्ची वाणी है। वे ही हाथ सच्चे हाथ हैं, जो भगवान की सेवा के लिये काम करते हैं। वही मन सच्चा मन हैं, जो चराचर प्राणियों में निवास करने वाले भगवान का स्मरण करता है; और वे ही कान वास्तव में कान कहने योग्य हैं, जो भगवान की पुण्यमयी कथाओं का श्रवण करते हैं। वही सिर सिर है, जो चराचर जगत् को भगवान की चल-अचल प्रतिमा समझकर नमस्कार करता है; और जो सर्वत्र भगद्विग्रह का दर्शन करते हैं, वे ही नेत्र वास्तव में नेत्र हैं। शरीर के जो अंग भगवान और उनके भक्तों के चरणोंदक का सेवन करते हैं, वे ही अंग वास्तव में अंग हैं; सच पूछिये तो उन्हीं का होना सफल है।
सूत जी कहते हैं- शौनकादि ऋषियों! जब राजा परीक्षित ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब भगवान श्रीशुकदेव जी का हृदय भगवान श्रीकृष्ण में ही तल्लीन हो गया। उन्होंने परीक्षित से इस प्रकार कहा।
श्रीशुकदेव जी कहा- परीक्षित! एक ब्राह्मण भगवान श्रीकृष्ण के परम मित्र थे। वे बड़े ब्रह्मज्ञानी, विषयों से विरक्त, शान्तचित्त और जितेन्द्रिय थे। वे गृहस्थ होने पर भी किसी प्रकार का संग्रह-परिग्रह न रखकर प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जाता, उसी में सन्तुष्ट रहते थे। उनके वस्त्र तो फटे-पुराने थे ही, उनकी पत्नी के भी वैसे ही थे। वह भी अपने पति के समान ही भूख से दुबली हो रही थी। एक दिन दरिद्रता की प्रतिमूर्ति दुःखिनी पतिव्रता भूख के मारे काँपती हुई अपने पतिदेव के पास गयी और मुरझाये हुए मुँह से बोली- ‘भगवन्! साक्षात् लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्ण आपके सखा हैं। वे भक्तवांछाकल्पतरु, शरणागतवत्सल और ब्राह्मणों के परम भक्त हैं। परम भाग्यवान् आर्यपुत्र! वे साधु-संतों के, सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय हैं। आप उनके पास जाइये। जब वे जानेंगे कि आप कुटुम्बी हैं और अन्न के बिना दुःखी हो रहे हैं तो वे आपको बहुत-सा धन देंगे। आजकल वे भोज, वृष्णि और अन्धकवंशी यादवों के स्वामी के रूप में द्वारका में ही निवास कर रहे हैं और इतने उदार हैं कि जो उनके चरणकमलों का स्मरण करते हैं, उन प्रेमी भक्तों को वे अपने-आप तक का दान कर डालते हैं। ऐसी स्थिति में जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों को यदि धन और विषय-सुख, जो अत्यन्त वाञ्छनीय नहीं है, दे दें तो इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है?’
इस प्रकार जब उन ब्राह्मण देवता की पत्नी ने अपने पतिदेव से कई बार बड़ी नम्रता से प्रार्थना की, तब उन्होंने सोचा कि ‘धन की तो कोई बात नहीं है; परन्तु भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन हो जायेगा, यह तो जीवन का बहुत बड़ा लाभ है’।
यही विचार करके उन्होंने जाने का निश्चय किया और अपनी पत्नी से बोले- ‘कल्याणी! घर में कुछ भेंट देने योग्य वस्तु भी है क्या? यदि हो तो दे दो’। तब उस ब्राह्मणी ने पास-पड़ोस के ब्राह्मणों के घर से चार मुट्ठी चिउड़े माँगकर एक कपड़े में बाँध दिया और भगवान को भेंट देने के लिये अपने पतिदेव को दे दिये। इसके बाद वे ब्राह्मण देवता उन चिउड़ों को लेकर द्वारका के लिये चल पड़े। वे मार्ग में यह सोचते जाते थे कि ‘मुझे भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन कैसे प्राप्त होंगे?’
परीक्षित! द्वारका में पहुँचने पर वे ब्राह्मण देवता दूसरे ब्राह्मणों के साथ सैनिकों की तीन छावनियाँ और तीन ड्योढ़ियाँ पार करके भगवद्धर्म का पालन करने वाले अन्धक और वृष्णिवंशी यादवों के महलों में, जहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन है, जा पहुँचे। उनके बीच भगवान श्रीकृष्ण की सोलह हजार रानियों के महल थे। उनमें से एक में उन ब्राह्मण देवता ने प्रवेश किया। वह महल खूब सजा-सजाया- अत्यन्त शोभायुक्त था। उसमें प्रवेश करते समय उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मानो वे ब्रह्मानन्द के समुद्र में डूब-उतरा रहे हों। उस समय भगवान श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिया रुक्मिणी जी के पलंग पर विराजे हुए थे। ब्राह्मण देवता को दूर से ही देखकर वे सहसा उठ खड़े हुए और उनके पास आकर बड़े आनन्द से उन्हें अपने भुजपाश में बाँध लिया।
परीक्षित! परमानन्दस्वरूप भगवान अपने प्यारे सखा ब्राह्मणदेवता के अंग-स्पर्श से अत्यन्त आनन्दित हुए। उनके कमल के समान कोमल नेत्रों से प्रेम के आँसू बरसने लगे। परीक्षित! कुछ सम
*श्री कृष्ण लीला*
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एक बार बरसाने में एक वृजबासी के बेटे की शादी हुई, वो वृजबसिन् ने सबको बुलाया पर राधा रानी को न्योता देना भूल गयी ।
उसको शादी के पहले याद था पर शादी के समय ही भूल गयी।
जब शादी हो गयी और बहु घर मे आ गयी तब उसको याद आया , हाय रे राधा रानी को बुलाना तो भूल गयी।
तब वो राधा रानी के पास गयी बोली राधा रानी माफ़ कर दो आपको बुलाना तो भूल गयी मैं।
राधा रानी बोली कोई बात नहीं भूल गयी तो पर आपने मुझे अपने दिल में तो रखा यही मेरे लिए बहुत सौभाग्य की बात है।
*कितनी उदार है राधा रानी कितनी करुणा शील है*
राधा रानी बोली नयी नवेली बहु कैसी है ?
वृजबसिन् बोली अभी अपनी नयी बहु को बुला के लाती हुँ।
जब राधारानी से मिलने गयी थी तो अपनी बहु की रखवाली के लिए वो एक सखी को साथ छोड के गयीं थी बहु के पास।
वृज वासिन के आने से पहले ठाकुर जी उसके घर गये और हमारे ठाकुर जी तो है ही शरारती । तो उन्होने दुल्हन का श्रृंगार करके बहु को सुला दिया और खुद बहु बनके घुंघट ओढ़ कर बैठ गए।
वृजबसिन् जल्दी घर मे आई और बोली बहु से : राधा रानी तुझ से मिलना चाह रही जल्दी चल।
कृष्ण दुल्हन रूप में घूँघट के अंदर से बोले : राधा जी ने मुझे याद किया पर में घूँघट ओढ़ के ही जाउगी उनके पास।
दोनो जब महल पहुँची तो सास ने बहु से कहा : ये व्रज की रानी है राधा रानी ।और कृष्ण और घूँघट में शरमाते जा रहे थे।
बहु जब किशोरी जू के पास पहुची तो सास ने कहा बहु से किशोरी जू के चरण स्पर्श करो और उनका आशिर्वाद लो ।
चरण स्पर्श की बात सुनते ही ठाकुर जी बहु रूप में पुलकित हो गये और किशोरी जू के चरण स्पर्श करने लगे।
किशोरी जू ने मंगल आशीर्वाद दिया.. अपने प्रियतम की हमेसा प्रिया रहो।
बहुत आशीर्वाद दे कर निहाल कर दिया बहु को, फिर सखी के हाथो बहुत से सुन्दर मणि मोती गहने मेहदी 16 शृंगार नए बस्त्र मगांये दुल्हन के मुख दिखाई के लिए। और दुल्हन से कहा ये तुम्हारा उपहार है.. अब अपना मुख दिखाओ।
दुल्हन ने घूँघट में से सर को हिला के मना कर दिया... सारी सखिया मंजरियाँ विस्मृत हो गयी कि ये कैसी दुल्हन जो किशोरी जू की आज्ञा का पालन नहीं करती।
राधा रानी फिर विनती की अपना मुख तो दिखाओ हम बहुत अधीर है नयी बहु का मुख देखने को लेकिन बहु ने और ज़ोर से सर हिला कर मना कर दिया ।
तभी सास बोली बड़ी बत्तमीज़ है दुल्हन.. राधा रानी की बात नहीं मानती ।
राधा रानी बोली : मुख दिखाई का उपहार कम लग रहा हो तो और ज्यादा दे देंगी जितना चाहे पर मुख दिखा दे एकबार ।
बहु ने फिर ज़ोर से मना कर दिया सर हिला के।
सास ने भी बहुत समझाया पर बहु नहीं मानी मुख दिखाने को।
राधा रानी बोली मेंरे से प्रसादी अंलकार भी ले लो, और जो चाहो मांग लो पर मुख दिखा दो.. बहु ने मना कर दिया.. सास को गुस्सा आने लगा।
राधा रानी बोली: कोई तकलीफ हो तो मुझे बता दो।
सब सहचरी बोली बड़ी हठी है दुल्हन।
यहा राधा रानी की अधीरता बढ़ती जा रही है अपने गले का हार भी उपहार में दे दिया पर बहु ना मानी।
राधा रानी बोली बहु से में तुझे अपने साथ ही रख लूंगी अपनी सखी बनाकर , पर अपना मुख दिखादे एक बार मोको ।
ये सुनते ही श्यामसुन्दर ज्यादा पुलकित हो गये... आज तो कृपा हो गयी बरसाने का बास मिल गया। वो भी निज महल में जहा मै नित बुहार लगाता हूँ...अपने प्रिय पीताम्बर से ।
राधा रानी ने बचन दे दिया कि तोकु अपने निज महल में रख लूंगी। बस एक बार अपना मुख दिखादे राधा रानी की अधीरता बढ़ती जा रही थी ।
ललिता जी से देखी नही गयी किशोरी जू की अधीरता, ललिता बोली : बहुत हठी है दुल्हन । अभी इसे बताती हुँ हमारी किशोरी को काहे अधीर करे जा रही है ।
दुल्हन के पास जाके बोली : जब किशोरी जू तुझ को परम आशीर्वाद दे दिया.. तुझे अपने साथ रख लेगी ऐसा सौभाग्य तो हमे भी कभी कभी मिलता है। और तू आभार प्रगट करने की जगह एतरा रहि है.. इतनी बड़ी कृपा तुझ को समझ नहीं आ रही है..चल दिखा अपना मुख किशोरी जी को।
बहु ने घूँघट से कोई उत्तर नहीं दिया पर घूँघट के आनंद पुलकाय मान हो गये ।
ललिता जी बोली : तू ऐसे नहीं मानेगी तुझे मै बताती हूँ। और फिर बहु को पकड़ कर हाथ से घूँघट ऊपर उठा दिया पर सिर्फ एक क्षण ही ।बहु ने तुरंत ही घूंघट डाल दिया ।
घूँघट उठते ही महल में सन्नाटा छा गया.. सारी सखियाँ और मंजरी ओढनी मुख पर रख कर मंद मंद मुस्कुराने लगी ।
किशोरी जू के आनंद की भी सीमा ना रही.. सब ने नयी बहु का ज़ोर दार स्वागत किया। चारो और नयी बहु की मंगल बधाई गा रही थी सखिया ।
श्यामसुन्दर लज्जा के मारे घूँघट दुबारा ओढ़ लिए.. तब किशोरी जी नयी बहु के पास गयी और उसका घूँघट थोडा उपर कर दिया।
किशोरी जी बोली : ऐसी नई बहु की मुख दिखाई में तो मै त्रिभुन वार दूं।
श्याम सुन्दर मन मे बोले आज तो जीवन सफल हो गया.. कितने युगों से आस थी बरसाने महल के बास की.. वो आज पूरी हुई।
कृपा देखो किशोरी जु की। कि बास भी ब