Sudhir Kumar

ॐ नमो भगवते वासुदेवाये नमः || श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकशीतितम अध्याय सुदामा जी को ऐश्वर्य की प्राप्ति श्रीशुकदेव जी कहते हैं- प्रिय परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण सबके मन की बात जानते हैं। वे ब्राह्मणों के परम भक्त, उनके क्लेशों के नाशक और संतों के एकमात्र आश्रय हैं। वे पूर्वोक्त प्रकार से उन ब्राह्मण देवता के साथ बहुत देर तक बीतचीत करते रहे। अब वे अपने प्यारे सखा उन ब्राह्मण से तनिक मुसकराकर विनोद करते हुए बोले। उस समय भगवान उन ब्राह्मण देवता की ओर प्रेमभरी दृष्टि से देख रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- ‘ब्रह्मन्! आप अपने घर से मेरे लिए क्या उपहार लाये हैं? मेरे प्रेमी भक्त जब प्रेम से थोड़ी-सी वस्तु भी मुझे अर्पण करते हैं तो वह मेरे लिए बहुत हो जाती है। परन्तु मेरे अभक्त यदि बहुत-सी सामग्री भी मुझे भेंट करते हैं तो उससे मैं सन्तुष्ट नहीं होता। जो पुरुष प्रेमभक्ति के फल-फूल अथवा पत्ता-पानी में से कोई भी वस्तु मुझे समर्पित करता है, तो मैं उस शुद्धचित्त भक्त का वह प्रेमोपहार केवल स्वीकार ही नहीं करता, बल्कि तुरंत भोग लगा लेता हूँ’। परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर भी उन ब्राह्मण देवता ने लज्जावश उन लक्ष्मीपति को वे चार मुट्ठी चिउड़े नहीं दिये। उन्होंने संकोच से अपना मुँह नीचे कर लिया था। परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण समस्त प्राणियों के हृदय का एक-एक संकल्प और उनका अभाव भी जानते हैं। उन्होंने ब्राह्मण के आने का कारण, उनके हृदय की बात जान ली। अब वे विचार करने लगे की ‘एक तो यह मेरा प्यारा सखा है, दूसरे इसने पहले कभी लक्ष्मी की कामना से मेरा भजन नहीं किया है। इस समय यह अपनी पतिव्रता पत्नी को प्रसन्न करने के लिये उसी के आग्रह से यहाँ आया है। अब मैं इसे ऐसी सम्पत्ति दूँगा, जो देवताओं के लिये भी अत्यंत दुर्लभ है’। भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसा विचार करके उनके वस्त्र में से चिथड़े की एक पोटली में बँधा हुआ चिउड़ा ‘यह क्या है’- ऐसा कहकर स्वयं ही छीन लिया और बड़े आदर से कहने लगे- ‘प्यारे मित्र! यह तो तुम मेरे लिए अत्यन्त प्रिय भेंट ले आये हो। ये चिउड़े न केवल मुझे, बल्कि सारे संसार को तृप्त करने के लिए पर्याप्त हैं’। ऐसा कहकर उसमें से एक मुट्ठी चिउड़ा खा गए और दूसरी मुट्ठी ज्यों ही भरी त्यों ही रुक्मिणी जी के रूप में स्वयं भगवती लक्ष्मी जी ने भगवान श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया। क्योंकि वे तो एकमात्र भगवान के परायण हैं, उन्हें छोड़कर और कहीं जा नहीं सकतीं। रुक्मिणी जी ने कहा- ‘विश्वात्मन्! बस, बस! मनुष्य को इस लोक में तथा मरने के बाद परलोक में भी समस्त संपत्तियों की समृद्धि प्राप्त करने के लिए यह एक मुट्ठी चिउड़ा ही बहुत है; क्योंकि आपके लिये इतना ही प्रसन्नता का हेतु बन जाता है’। परीक्षित! ब्राह्मण देवता उस रात को भगवान श्रीकृष्ण के महल में ही रहे। उन्होंने बड़े आराम से वहाँ खाया-पिया और ऐसा अनुभव किया, मानो मैं वैकुण्ठ में ही पहुँच गया हूँ। परीक्षित! श्रीकृष्ण से ब्राह्मण को प्रत्यक्षरूप में कुछ भी न मिला। फिर भी उन्होंने उनसे कुछ माँगा नहीं। वे अपने चित्त की करतूत पर कुछ लज्जित-से होकर भगवान श्रीकृष्ण के दर्शनजनित आनन्द में डूबते-उतराते अपने घर की और चल पड़े। वे मन-ही-मन सोचने लगे- ‘अहो, कितने आनन्द और आश्चर्य की बात है। ब्राह्मणों को अपना इष्टदेव मानने वाले भगवान श्रीकृष्ण की ब्राह्मणभक्ति आज मैंने अपनी आँखों देख ली। धन्य हैं! जिनके वक्षःस्थल पर स्वयं लक्ष्मी जी सदा विराजमान रहती हैं, उन्होंने मुझ अत्यन्त दरिद्र को अपने हृदय से लगा लिया। कहाँ तो मैं अत्यन्त पापी और दरिद्र, और कहाँ लक्ष्मी के एकमात्र आश्रय भगवान श्रीकृष्ण! परन्तु उन्होंने ‘यह ब्राह्मण है’- ऐसा समझकर मुझे अपनी भुजाओं में भरकर हृदय से लगा लिया। इतना ही नहीं, उन्होंने मुझे उस पलंग पर सुलाया, जिस पर उनकी प्राणप्रिया रुक्मिणी जी शयन करती हैं। मानो मैं उनका सगा भाई हूँ! कहाँ तक कहूँ? मैं थका हुआ था, इसलिये स्वयं उनकी पटरानी रुक्मिणी जी ने अपने हाथों चँवर डुलाकर मेरी सेवा की। ओह, देवताओं के आराध्यदेव होकर ब्राह्मणों को अपना इष्टदेव मानने वाले प्रभु ने पाँव दबाकर, अपने हाथों खिला-पिलाकर मेरी अत्यन्त सेवा-शुश्रूषा की और देवता के सामान मेरी पूजा की। स्वर्ग, मोक्ष, पृथ्वी और रसातल की सम्पत्ति तथा समस्त योगसिद्धियों की प्राप्ति का मूल उनके चरणों की पूजा ही है। फिर भी परम दयालु श्रीकृष्ण ने यह सोचकर मुझे थोड़ा-सा भी धन नहीं दिया कि कहीं यह दरिद्र धन पाकर बिलकुल मतवाला न हो जाये और मुझे न भूल बैठे’। इस प्रकार मन-ही-मन विचार करते-करते ब्राह्मण देवता अपने घर के पास पहुँच गये। वे वहाँ क्या देखते हैं कि सब-का-सब स्थान सूर्य, अग्नि और चन्द्रमा के सामान तेजस्वी रत्न निर्मित महलों से घिरा हुआ है। ठौर-ठौर चित्र-विचित्र उपवन और उद्यान बने हुए हैं तथा उसमें झुंड-के-झुं

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चातुर्मास विशेष 〰️〰️🌼〰️〰️ चातुर्मास में वर्ष के चार महीने आते हैं सावन, भादों, क्वार, कार्तिक। (श्रावण, भाद्र,अश्विन, कार्तिक-मास) एक दण्डी तथा त्रिदंडी सभी के लिए ही चातुर्मास व्रत करणीय है अर्थात एक दंडी -ज्ञानीगण तथा त्रिदंडी भक्त गण दोनों ही चातुर्मास व्रत का पालन करते हैं। श्री शंकर मठ के अनुयायियों में भी चातुर्मास व्रत की व्यवस्था है। मनुष्य एक हजार अश्वमेध यज्ञ करके मनुष्य जिस फल को पाता है, वही चातुर्मास्य व्रत (11 जुलाई से 7 नवंबर 2019) के अनुष्ठान से प्राप्त कर लेता है। आषाढ़ के शुक्ल पक्ष में एकादशी के दिन 12 जुलाई अथवा गुरुपूर्णिमा 16 जुलाई का उपवास करके मनुष्य भक्तिपूर्वक चातुर्मास्य व्रत प्रारंभ करे। इन चार महीनों में ब्रह्मचर्य का पालन, त्याग, पत्तल पर भोजन, उपवास, मौन, जप, ध्यान, स्नान, दान, पुण्य आदि विशेष लाभप्रद होते हैं। व्रतों में सबसे उत्तम व्रत है – ब्रह्मचर्य का पालन। विशेषतः चतुर्मास में यह व्रत संसार में अधिक गुणकारक है। जो चतुर्मास में अपने प्रिय भोगों का श्रद्धा एवं प्रयत्नपूर्वक त्याग करता है, उसकी त्यागी हुई वे वस्तुएँ उसे अक्षय रूप में प्राप्त होती हैं। चतुर्मास में गुड़ का त्याग करने से मनुष्य को मधुरता की प्राप्ति होती है। ताम्बूल का त्याग करने से मनुष्य भोग-सामग्री से सम्पन्न होता है और उसका कंठ सुरीला होता है। दही छोड़ने वाले मनुष्य को गोलोक मिलता है। नमक छोड़ने वाले के सभी पूर्तकर्म (परोपकार एवं धर्म सम्बन्धी कार्य) सफल होते हैं। जो मौनव्रत धारण करता है उसकी आज्ञा का कोई उल्लंघन नहीं करता। चतुर्मास में काले एवं नीले रंग के वस्त्र त्याग देने चाहिए। कुसुम्भ (लाल) रंग व केसर का भी त्याग कर देना चाहिए। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी 12 जुलाई को श्रीहरि के योगनिद्रा में प्रवृत्त हो जाने पर मनुष्य चार मास अर्थात् कार्तिक की पूर्णिमा 12 नवंबर तक भूमि पर शयन करे। ऐसा करने वाला मनुष्य बहुत से धन से युक्त होता और विमान प्राप्त करता है। जो भगवान जनार्दन के शयन करने पर शहद का सेवन करता है, उसे महान पाप लगता है। चतुर्मास में अनार, नींबू, नारियल तथा मिर्च, उड़द और चने का भी त्याग करे। चातुर्मास्य में परनिंदा का विशेष रूप से त्याग करे। परनिंदा को सुनने वाला भी पापी होता है। चतुर्मास में ताँबे के पात्र में भोजन विशेष रूप से त्याज्य है। काँसे के बर्तनों का त्याग करके मनुष्य अन्यान्य धातुओं के पात्रों का उपयोग करे। अगर कोई धातुपात्रों का भी त्याग करके पलाशपत्र, मदारपत्र या वटपत्र की पत्तल में भोजन करे तो इसका अनुपम फल बताया गया है। अन्य किसी प्रकार का पात्र न मिलने पर मिट्टी का पात्र ही उत्तम है अथवा स्वयं ही पलाश के पत्ते लाकर उनकी पत्तल बनाये और उससे भोजन-पात्र का कार्य ले। पलाश के पत्तों से बनी पत्तल में किया गया भोजन चान्द्रायण व्रत एवं एकादशी व्रत के समान पुण्य प्रदान करने वाला माना गया है। प्रतिदिन एक समय भोजन करने वाला पुरुष अग्निष्टोम यज्ञ के फल का भागी होता है। पंचगव्य सेवन करने वाले मनुष्य को चान्द्रायण व्रत का फल मिलता है। यदि धीर पुरुष चतुर्मास में नित्य परिमित अन्न का भोजन करता है तो उसके सब पातकों का नाश हो जाता है और वह वैकुण्ठ धाम को पाता है। चतुर्मास में केवल एक ही अन्न का भोजन करने वाला मनुष्य रोगी नहीं होता। जो मनुष्य चतुर्मास में केवल दूध पीकर अथवा फल खाकर रहता है, उसके सहस्रों पाप तत्काल विलीन हो जाते हैं। जो चतुर्मास में भगवान विष्णु के आगे खड़ा होकर 'पुरुष सूक्त' का पाठ करता है, उसकी बुद्धि बढ़ती है)। कैसा भी दबू विद्यार्थी हो बुद्धिमान बनेगा | चतुर्मास सब गुणों से युक्त समय है। इसमें धर्मयुक्त श्रद्धा से शुभ कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिए। देवशयनी एकादशी जुलाई से देवउठनी एकादशी तक उक्त धर्मों का साधन एवं नियम महान फल देने वाला है। चतुर्मास में भगवान नारायण योगनिद्रा में शयन करते हैं, इसलिए चार मास शादी-विवाह और सकाम यज्ञ नहीं होते। ये मास तपस्या करने के हैं। चतुर्मास में योगाभ्यास करने वाला मनुष्य ब्रह्मपद को प्राप्त होता है। 'नमो नारायणाय' का जप करने से सौ गुने फल की प्राप्ति होती है। यदि मनुष्य चतुर्मास में भक्तिपूर्वक योग के अभ्यास में तत्पर न हुआ तो निःसंदेह उसके हाथ से अमृत का कलश गिर गया। जो मनुष्य नियम, व्रत अथवा जप के बिना चौमासा बिताता है वह मूर्ख है। चतुर्मास में विशेष रूप से जल की शुद्धि होती है। उस समय तीर्थ और नदी आदि में स्नान करने का विशेष महत्त्व है। नदियों के संगम में स्नान के पश्चात् पितरों एवं देवताओं का तर्पण करके जप, होम आदि करने से अनंत फल की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य जल में तिल और आँवले का मिश्रण अथवा बिल्वपत्र डालकर ॐ नमः शिवाय का चार-पाँच बार जप करके उस जल से स्नान करता है, उसे नित्य महान पुण्य प्राप्त होता है।

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ॐ नमो भगवते वासुदेवाये नमः || श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुरशीतितम अध्याय वसुदेवजी का यज्ञोत्सव श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! सर्वात्मा भक्तभयहारी भगवान श्रीकृष्ण के प्रति उनकी पत्नियों का कितना प्रेम है- यह बात कुन्ती, गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, दूसरी राजपत्नियों और भगवान की प्रियतमा गोपियों ने भी सुनी। सब-की-सब उनका यह अलौकिक प्रेम देखकर अत्यन्त मुग्ध, अत्यन्त विस्मित हो गयीं। सबके नेत्रों में प्रेम के आँसू छलक आये। इस प्रकार जिस समय स्त्रियों से स्त्रियाँ और पुरुषों से पुरुष बातचीत कर रहे थे, उसी समय बहुत-से ऋषि-मुनि भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी का दर्शन करने के लिये वहाँ आये। उनमें प्रधान ये थे- श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास, देवर्षि नारद, च्यवन, देवल, असित, विश्वामित्र, शतानन्द, भरद्वाज, गौतम, अपने शिष्यों के सहित भगवान परशुराम, वसिष्ठ, गालव, भृगु, पुलस्त्य, कश्यप, अत्रि, मार्कण्डेय, बृहस्पति, द्वित, त्रित, एकत, सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार , अंगिरा, अगस्त्य, याज्ञवल्क्य और वामदेव इत्यादि। ऋषियों को देखकर पहले से बैठे हुए नरपतिगण, युधिष्ठिर आदि पाण्डव, भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी सहसा उठकर खड़े हो गये और सब ने उन विश्ववन्दित ऋषियों को प्रणाम किया। इसके बाद स्वागत, आसन, पाद्य, अर्घ्य, पुष्पमाला, धूप और चन्दन आदि से सब राजाओं ने तथा बलराम जी के साथ स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने उन सब ऋषियों की विधिपूर्वक पूजा की। जब सब ऋषि-मुनि आराम से बैठ गये, तब धर्मरक्षा के लिये अवतीर्ण भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा। उस समय वह बहुत बड़ी सभा चुपचाप भगवान का भाषण सुन रही थी। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- धन्य है! हम लोगों का जीवन सफल हो गया, आज जन्म लेने का हमें पूरा-पूरा फल मिल गया; क्योंकि जिन योगेश्वरों का दर्शन बड़े-बड़े देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है, उन्हीं का दर्शन हमें प्राप्त हुआ है। जिन्होंने बहुत थोड़ी तपस्या की है और जो लोग अपने इष्टदेव को समस्त प्राणियों के हृदय में न देखकर केवल मूर्ति विशेष में ही उनका दर्शन करते हैं, उन्हें आप लोगों के दर्शन, स्पर्श, कुशल-प्रश्न, प्रणाम और पादपूजन आदि का सुअवसर भला कब मिल सकता है? केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं कहलाते और केवल मिट्टी या पत्थर की प्रतिमाएँ ही देवता नहीं होतीं; संत पुरुष ही वास्तव में तीर्थ और देवता हैं; क्योंकि उनका बहुत समय तक सेवन किया जाये, तब वे पवित्र हैं; परन्तु संत पुरुष तो दर्शन मात्र से ही कृतार्थ कर देते हैं। अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, तारे, पृथ्वी, जल, आकाश, वायु, वाणी और मन के अधिष्ठातृ-देवता उपासना करने पर भी पाप का पूरा-पूरा नाश नहीं कर सकते; क्योंकि उनकी उपासना से भेद-बुद्धि का नाश नहीं होता, वह और भी बढ़ती है। परन्तु यदि घड़ी-दो-घड़ी भी ज्ञानी महापुरुषों की सेवा की जाये तो वे सारे पाप-ताप मिटा देते हैं; क्योंकि वे भेद-बुद्धि के विनाशक हैं। महात्माओ और सभासदो! जो मनुष्य वात, पित्त और कफ- इन तीन धातुओं से बने हुए शवतुल्य शरीर को ही आत्मा-अपना, ‘मैं’, स्त्री-पुत्र आदि को ही अपना और मिट्टी, पत्थर, काष्ठ, आदि पार्थिव विकारों को ही इष्टदेव मानता है तथा जो केवल जल को ही तीर्थ समझता है- ज्ञानी महापुरुषों को नहीं, वह मनुष्य होने पर भी पशुओं में भी नीच गधा ही है। श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण अखण्ड ज्ञानसम्पन्न हैं। उनका यह गूढ भाषण सुनकर सब-के-सब ऋषि-मुनि चुप रह गये। उनकी बुद्धि चक्कर में पड़ गयी, वे समझ न सके कि भगवान यह क्या कह रहे हैं। उन्होंने बहुत देर तक विचार करने के बाद यह निश्चय किया कि भगवान सर्वेश्वर होने पर भी जो इस प्रकार सामान्य, कर्म-परतन्त्र जीव की भाँति व्यवहार कर रहे हैं- यह केवल लोक संग्रह के लिये ही है। ऐसा समझकर वे मुसकराते हुए जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण से कहने लगे। मुनियों ने कहा- भगवन्! आपकी माया से प्रजापतियों के अधीश्वर मरीचि आदि तथा बड़े-बड़े तत्त्वज्ञानी हम लोग मोहित हो रहे हैं। आप स्वयं ईश्वर होते हुए भी मनुष्य की-सी चेष्टाओं से अपने को छिपाये रखकर जीव की भाँति आचरण करते हैं। भगवन्! सचमुच आपकी लीला अत्यन्त विचित्र है। परम आश्चर्यमयी है। जैसे पृथ्वी अपने विकारों–वृक्ष, पत्थर, घट आदि के द्वारा बहुत-से नाम और रूपों को ग्रहण कर लेती है, वास्तव में वह एक ही है, वैसे ही आप एक और चेष्टाहीन होने पर भी अनेक रूप धारण कर लेते हैं और अपने-आप से इस जगत् की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। पर यह सब करते हुए भी इन कर्मों से लिप्त नहीं होते। जो सजातीय, विजातीय और स्वगत भेदशून्य एकरस अनन्त है, उसका यह चरित्र लीलामात्र नहीं तो और क्या है? धन्य है आपकी यह लीला। भगवन्! यद्यपि आप प्रकृति से परे, स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं, तथापि समय-समय पर भक्तजनों की रक्षा और दुष्टों का दमन करने के लिये विशुद्ध सत्त्वमय श्रीविग्रह प्रकट करते हैं

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