Sudhir Kumar

दीप जल उठे..सास बहु की कहानी 〰️〰️🔸〰️🔸🔸〰️🔸〰️〰️ दफ्तर से आतेआते रात के 8 बज गए थे. घर में घुसते ही प्रतिमा के बिगड़ते तेवर देख श्रवण भांप गया कि जरूर आज घर में कुछ हुआ है वरना मुसकरा कर स्वागत करने वाली का चेहरा उतरा न होता. सारे दिन महल्ले में होने वाली गतिविधियों की रिपोर्ट जब तक मुझे सुना न देती उसे चैन नहीं मिलता था. जलपान के साथसाथ बतरस पान भी करना पड़ता था. अखबार पढ़े बिना पासपड़ोस के सुखदुख के समाचार मिल जाते थे. शायद देरी से आने के कारण ही प्रतिमा का मूड बिगड़ा हुआ है. प्रतिमा से माफी मांगते हुए बोला, ‘‘सौरी, मैं तुम्हें फोन नहीं कर पाया. महीने का अंतिम दिन होने के कारण बैंक में ज्यादा काम था.’’ ‘‘तुम्हारी देरी का कारण मैं समझ सकती हूं, पर मैं इस कारण दुखी नहीं हूं,’’ प्रतिमा बोली. ‘‘फिर हमें भी तो बताओ इस चांद से मुखड़े पर चिंता की कालिमा क्यों?’’ श्रवण ने पूछा. ‘‘दोपहर को अमेरिका से बड़ी भाभी का फोन आया था कि कल माताजी हमारे पास पहुंच रही हैं,’’ प्रतिमा चिंतित होते हुए बोली. ‘‘इस में इतना उदास व चिंतित होने कि क्या बात है? उन का अपना घर है वे जब चाहें आ सकती हैं.’’ श्रवण हैरानी से बोला. ‘‘आप नहीं समझ रहे. अमेरिका में मांजी का मन नहीं लगा. अब वे हमारे ही साथ रहना चाहती हैं.’’ प्रतिमा ने कहा. ‘‘अरे मेरी चंद्रमुखी, अच्छा है न, घर में रौनक बढ़ेगी, बरतनों की उठापटक रहेगी, एकता कपूर के सीरियलों की चर्चा तुम मुझ से न कर के मां से कर सकोगी. सासबहू मिल कर महल्ले की चर्चाओं में बढ़चढ़ कर भाग लेना,’’ श्रवण चटखारे लेते हुए बोला. ‘‘तुम्हें मजाक सूझ रहा है और मेरी जान सूख रही है,’’ प्रतिमा बोली. ‘‘चिंता तो मुझे होनी चाहिए, तुम सासबहू के शीतयुद्ध में मुझे शहीद होना पड़ता है. मेरी स्थिति चक्की के 2 पाटों के बीच में पिसने वाली हो जाती है. न मां को कुछ कह सकता हूं, न तुम्हें.’’ कुछ सोचते हुए श्रवण फिर बोला, ‘‘मैं तुम्हें कुछ टिप्स देना चाहता हूं. यदि तुम उन्हें अपनाओगी तो तुम्हारी सारी परेशानियां एक झटके में उड़नछू हो जाएंगी.’’ ‘‘यदि ऐसा है तो आप जो कहेंगे मैं करूंगी. मैं चाहती हूं मांजी खुश रहें. आप को याद है पिछली बार छोटी सी बात से मांजी नाराज हो गई थीं.’’ ‘‘देखो प्रतिमा, जब तक पिताजी जीवित थे तब तक हमें उन की कोई चिंता नहीं थी. जब से वे अकेली हो गई हैं उन का स्वभाव बदल गया है. उन में असुरक्षा की भावना ने घर कर लिया है. अब तुम ही बताओ, जिस घर में उन का एकछत्र राज था वो अब नहीं रहा. बेटों को तो बहुओं ने छीन लिया. जिस घर को तिनकातिनका जोड़ कर मां ने अपने हाथों से संवारा, उसे पिताजी के जाने के बाद बंद करना पड़ा. ‘‘उन्हें कभी अमेरिका तो कभी यहां हमारे पास आ कर रहना पड़ता है. वे खुद को बंधन में महसूस करती हैं. इसलिए हमें कुछ ऐसा करना चाहिए जिस में उन्हें अपनापन लगे. उन को हम से पैसा नहीं चाहिए. उन के लिए तो पिताजी की पैंशन ही बहुत है. उन्हें खुश रखने के लिए तुम्हें थोड़ी सी समझदारी दिखानी होगी, चाहे नाटकीयता से ही सही,’’ श्रवण प्रतिमा को समझाते हुए बोला. ‘‘आप जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करने को तैयार हूं,’’ प्रतिमा ने आश्वासन दिया. ‘‘तो सुनो प्रतिमा, हमारे बुजुर्गों में एक ‘अहं’ नाम का प्राणी होता है. यदि किसी वजह से उसे चोट पहुंचती है, तो पारिवारिक वातावरण प्रदूषित हो जाता है यानी परिवार में तनाव अपना स्थान ले लेता है. इसलिए हमें ध्यान रखना होगा कि मां के अहं को चोट न लगे बस… फिर देखो…’’ श्रवण बोला. ‘‘इस का उपाय भी बता दीजिए आप,’’ प्रतिमा ने उत्सुकता से पूछा. ‘‘हां… हां… क्यों नहीं, सब से पहले तो जब मां आए तो सिर पर पल्लू रख कर चरणस्पर्श कर लेना. रात को सोते समय कुछ देर उन के पास बैठ कर हाथपांव दबा देना. सुबह उठ कर चरणस्पर्श के साथ प्रणाम कर देना,’’ श्रवण ने समझाया. ‘‘यदि मांजी इस तरह से खुश होती हैं, तो यह कोई कठिन काम नहीं है,’’ प्रतिमा ने कहा. ‘‘एक बात और, कोई भी काम करने से पहले मां से एक बार पूछ लेना. होगा तो वही जो मैं चाहूंगा. जो बात मनवानी हो उस बात के विपरीत कहना, क्योंकि घर के बुजुर्ग लोग अपना महत्त्व जताने के लिए अपनी बात मनवाना चाहते हैं. हर बात में ‘जी मांजी’ का मंत्र जपती रहना. फिर देखना मां की चहेती बहू बनते देर नहीं लगेगी,’’ श्रवण ने अपने तर्कों से प्रतिमा को समझाया. ‘‘आप देखना, इस बार मैं मां को शिकायत का कोई मौका नहीं दूंगी.’’ ‘‘बस… बस… उन को ऐसा लगे जैसे घर में उन की ही चलती है. तुम मेरा इशारा समझ जाना. आखिर मां तो मेरी ही है. मैं जानता हूं उन्हें क्या चाहिए,’’ कहते हुए श्रवण सोने के लिए चला गया. प्रतिमा ने सुबह जल्दी उठ कर मांजी के कमरे की अच्छी तरह सफाई करवा दी. साथ ही उन की जरूरत की सभी चीजें भी वहां रख दीं. हम दोनों समय पर एयरपोर्ट पहुंच गए. हमें देखते ही मांजी की आंखें खुशी से चमक उठीं. सिर ढक कर प्रतिमा ने

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जानिये महाबली सूर्यपुत्र कर्ण की मृत्यु का रहस्य 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️ दुशाशन को जब भीम ने मार कर उसका रक्त पिया और द्रौपदी के केश उसके खून से धुलवाए तो दुर्योधन की आँखों में खून उतर आया उसने आव देखा न ताव, कर्ण को अर्जुन को ख़त्म करने का आदेश दे दिया और तब कर्ण सेनाओ को चीरते हुए अर्जुन के सामने कूद पड़ा और दोनों के बीच भयंकर युद्ध छिड़ गया। युद्ध इतना भयंकर था की कृष्ण ने कई बार अर्जुन को सावधान करना पड़ा था क्योंकि अर्जुन कर्ण की वीरता देख हक्का बक्का रह जाता था, अर्जुन के रथ पे हनुमान की ध्वजा लगी थी जिससे वो युद्ध में बच्चा रहा था। लेकिन इस युद्ध में हनुमान जी भी बेहद मुश्किल से अर्जुन का रथ नष्ट होने से बचा पाये, स्वयं वासुदेव श्री कृष्ण भी कर्ण के युद्ध कौशल की प्रशंसा कीये बिना न रह सके थे। विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का दावा करने वाले अर्जुन को ऐसा लग रहा था जैसे अर्जुन सामने है और वो खुद एक आम धनुर्धर है। शाम होते होते अर्जुन की हालत पतली हो गई और तब अर्जुन पर कर्ण ने ब्रह्मास्त्र चलाना चाहा था जिससे उसी पल अर्जुन की मौत हो सकती थी पर तब श्रीकृष्ण ने अपने चक्र की सहायता से समय से पहले सूर्यास्त कर दिया और अर्जुन के प्राण बच गए। हालाँकि महाभारत का युद्ध शुरू होने से पहले बने सारे कायदे टूट चुके थे तो सूर्यास्त को कौन पूछता पर कर्ण अर्जुन को ईमानदारी से मारना चाहता था और अपनी श्रेष्ठता साबित करना चाहता था इसलिए उसने रथ शिविर की तरफ मोड़ लिया। युद्ध के सत्रहवें दिन फिर वही कहानी शुरू हुई कर्ण ने अर्जुन पे ऐसे प्रहार किये की वो अधमरा हो गया, इसी हालत में अर्जुन पे कर्ण ने नागपाश चलाया (जो इंद्रजीत ने राम लखन पे चलाया था) पर कृष्ण ने अपने वाहन गरुड़ की सहायता से उसका लक्ष्य भ्रमित कर दिया और वो अर्जुन की छाती पर लगा। युद्ध में पहली बार अर्जुन अपने रथ से निचे भी गिरा और अर्धमूर्छित भी हो गया तब भी कर्ण उसे आसानी से मार सकता था पर फिर उसने ईमानदारी दिखाई। तब कर्ण को मिले तीनो श्राप एक साथ लगे थे, पहला श्राप गौ हत्या पर लगा की जब वो सबसे ज्यादा निसहाय अवस्था में होगा तभी उसकी मौत होगी दूसरा उसका रथ मिटटी में धंस गया जो की भूमि देवी के श्राप की वजह से हुआ था और अर्जुन को रथ से निचे गिरा देख वो अपने पहिये को निकालने रथ से उतरा पर तब तक अर्जुन रथ पे चढ़ चुका था और कृष्ण के कहने पर बाण तान चूका था तब भी कर्ण ने अपने अस्त्र चलाने चाहे पर वो परशुराम के श्राप की वजह से वो भी भूल चूका था। तब करण के युद्ध के पुरे कायदो से युद्ध लड़ने के बदले अर्जुन ने उसे रथ से निचे खड़े अपने रथ के पहिये को निकालने के प्रयास में निशस्त्र अवस्था में मार डाला। कर्ण ने परशुराम से झूठ कहके (की वो ब्राह्मण है) दीक्षा ली जब परशुराम को सत्य पता चला तो उन्होंने उसे समय पड़ने पर सारी विद्या भूलने का श्राप दिया था। जवानी में कर्ण के हाथो अनजाने में एक गाय और बैल की मौत हो गई थी जिसके बदले सफाई सुनने से पहले ही ब्राह्मण ने उसे श्राप दिया की जब तू सबसे ज्यादा असहाय होगा तभी तेरी मृत्यु होगी जैसा की हुआ। इतना ही नहीं एक छोटी बच्ची की सहायता करते हुए कर्ण ने मट्टी को निचोया था, इस पर भू देवी ने उसे रथ को युद्ध में मौके पर फंसने का श्राप दिया था। बस इन्ही श्रापो की वजह से परम प्रतापी कर्ण का अंत हुआ जिसकी देह को कृष्ण ने मुखाग्नि दी थी। 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️

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गुरु किसे और कैसे बनाएं ? ================== आज बहुत से लोग पूछते रहते हैं की हमें किसी गुरु के बारे में बताएं ,जो हमें दीक्षा दे सकें ,हमारा मार्गदर्शन कर सकें |तंत्र क्षेत्र के जिज्ञासुओं की संख्या इनमे अधिक होती है चूंकि तंत्र साधना बिना गुरु के संभव ही नहीं और शक्ति की प्राप्ति तंत्र से ही संभव है |गुरु के बिना किसी भी आध्यात्मिक क्षेत्र में साधक की स्थिति अँधेरे में हाथ पाँव मारने जैसी ही होती है |गुरु अगर मिल गया तो साधक शीघ्र लक्ष्य की और बढ़ जाता है |किन्तु जितनी बड़ी समस्या आज गुरु को खोजने और मिलने की है ,उससे बड़ी समस्या खोजने वाले की श्रद्धा और विश्वास की है |लोग कहते हैं की योग्य और सक्षम गुरु कहाँ से ढूंढें |कहाँ से ऐसे सिद्ध गुरु को पायें जो हमें सबकुछ दे सके |लोगों की सामान्य अभिलाषा भौतिक रुचिओं को लेकर ही होती है और वे सिद्धियाँ और चमत्कार चाहते हैं |अधिकतर गुरु खोजने वालों की यही अभिलाषा होती है की गुरु ऐसा मिले जो शीघ्र सिद्धि दिलवा दे या दे दे ,जिससे हमें भौतिक लाभ हो और हम चमत्कार कर सकें |लोग गुरु की सक्षमता और योग्यता ढूंढते फिरते हैं ,अपने योग्यता और सक्षमता के बारे में कोई नहीं सोचता |गुरु की शक्ति पहले जानना चाहते हैं ,अपनी क्षमता पर दृष्टि ही नहीं होती |गुरु पर श्रद्धा और उनपर विश्वास के बिना केवल चमत्कार और सिद्धि के लालच में बहुतेरे गुरु खोजते मिलते हैं |अपनी समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए गुरु खोजते मिलते हैं जबकि वास्तव में गुरु का सम्बन्ध भौतिकता से तो होना ही नहीं चाहिए |गुरु तो परम उन्नति ,परम लक्ष्य के लिए होना चाहिए |गुरु के बारे में लोग अधिक जानना चाहते हैं ,उनकी शक्ति पहले परखना चाहते हैं ताकि वह उस शक्ति को पा सकें ,उस शक्ति का उपयोग अपने लाभ के लिए कर सकें ,,अधिकतर का उद्देश्य मुक्ति-मोक्ष-ज्ञान प्राप्ति ,सत्य को जानना होता ही नहीं |ऐसे में तो वास्तविक गुरु मिलना ही मुश्किल होता है ,जो मिलेंगे वह भी तो भौतिकता वाले ही होंगे ,क्योकि आपका लक्ष्य भौतिकता ही तो है |ऐसे में परम लक्ष्य एक साथ प्राप्त करना मुश्किल होता है | जब आपमें किसी गुरु के प्रति श्रद्धा और विश्वास ही नहीं है ,पहले गुरु की ही शक्ति जानना चाहते हैं ,अपने को गुरु को समर्पित न कर उनसे ही केवल प्राप्ति की इच्छा है तो गुरु मिले भी तो कैसे |जितनी समस्या योग्य गुरु मिलने की है उतनी ही समस्या शिष्य में योग्यता और समर्पण का अभाव भी है |सामान्य रूप से लौकिक गुरु या समाज में अधिकाँश दिखने वाले गुरु भौतिकता में लिप्त और आडम्बरपूर्ण अगर हैं तो शिष्य भी तो उन्ही के पास जाते हैं ,वह भी तो आडम्बर ही देखते हैं की किसके पास कितनी भीड़ है ,कितना वैभव है |अगर वास्तव में साधना की अभिलाषा होती है तो कुछ दिनों में भ्रम टूट जाता है और अविश्वास उत्पन्न हो जाता है ,फिर नए गुरु की तलाश शुरू हो जाती है |गुरु अगर सक्षम है और सिद्ध है तो वह कभी चमत्कार नहीं दिखायेगा ,कभी प्रदर्शन अथवा प्रचार के चक्कर में नहीं पड़ेगा |यह तो वही करते हैं जिनमे क्षमता का अभाव होता है और प्रदर्शन से भीड़ और शिष्य बटोरना चाहते हैं |सक्षम व्यक्ति को इतनी फुर्सत ही कहाँ है की वह इन सब के बारे में सोचे ,उसे तो अपनी साधना और लक्ष्य के अतिरिक्त कुछ दीखता ही नहीं |वह तो किसी शिष्य अथवा दीक्षा के चक्कर में ही जल्दी नहीं पड़ना चाहता अथवा बेहद योग्य का ही चुनाव करता है अपने ज्ञान को आगे ले जाने के लिए | वास्तविक साधक अपनी साधना देखता है ,अपना लक्ष्य देखता है ,साधना में लिप्त रहता है ,आडम्बर-प्रचार-साधना में किसी प्रकार के अवरोधक तत्त्व से दूर रहता है |वह नहीं चाहता की उसके पास भीड़ लगे ,लोग इकट्ठे हों ,उसका ध्यान भटके ,या समय का दुरुपयोग हो |यद्यपि उसकी भी कुछ आवश्यकताएं होती हैं जिनकी पूर्ती उसे इसी भौतिक संसार से करनी होती हैं पर उसके लिए वह सीमित लोगो से ही उनकी पूर्ती करने की कोसिस करता है |उसकी सम्प्रदायगत और विद्या संरक्षण की भी जिम्मेदारी होती है पर इसके लिए वह बेहद योग्य और कम से कम शिश्यादी चुनने की कोसिस करता है |वह शिष्यों की भीड़ नहीं चाहता |वह चाहता है कम हों पर योग्य हों |इसके लिए वह बेहद सावधानी बरतता है ,सभी इच्छुकों को शिष्य बना लेने में उसकी रूचि नहीं होती |वह शिष्य की कठिन परिक्षा भी कभी कभी लेता है |चूंकि वह खुद योग्य होता है अतः योग्यता की परख होती है और योग्य ही चुनना चाहता है |योग्यता का शिक्षा अथवा ज्ञान से बहुत मतलब नहीं होता उसके लिए |वह तो समर्पण ,निष्ठां ,श्रद्धा ,विश्वास ,लक्ष्य अथवा उद्देश्य के प्रति लगाव -समर्पण आदि देखता है |कितने ऐसे हैं जो यह अपने अन्दर रखकर गुरु की तलाश करते हैं |अधिकतर तो पहले गुरु को ही जानना चाहते हैं ,उसकी ही योग्यता जानना चाहते हैं | अक्सर हमसे लोग गुरु के बारे में पूछते मिलते हैं |हमसे योग्य और सक्षम गुरु के बारे में बतान

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