Sudhir Kumar
प्रकृति ही परमात्मा ~ मैं प्रकृति में ही परमात्मा को देखता हूं। प्रतिक्षण, प्रतिघड़ी उसका मुझे अनुभव हो रहा है। एक श्वास भी ऐसी नहीं आती-जाती है, जब उससे मिलना न हो जाता हो। जहां भी आंख पड़ती है, देखता हूं कि वह उपस्थित है और जहां भी कान सुनते हैं, पाता हूं कि उसका ही संगीत है। वह तो सब जगह है, केवल उसे देखने भर की बात है। वह तो है, पर उसे पकड़ने के लिए आंख चाहिए। आंख के आते ही सब दिशाओं में और सब समय उपस्थित हो जाता है। रात्रि में आकाश जब तारों से भर जाए, तो उन तारों को सोचों मत, देखो और केवल देखो। विचार न हो और मात्र दर्शन हो, तो एक बड़ा राज , खुल जाता है और प्रकृति के द्वार से उस रहस्य में प्रवेश होता है, जो कि परमात्मा है। प्रकृति परमात्मा के अवतरण से ज्यादा कुछ भी नहीं है और जो उसके घूंघट को उठाना जानते हैं, वे ही केवल जीवन के सत्य से परिचित हो पाते हैं। सत्य का एक युवा खोजी किसी सद्गुरु के पास था। उसने जाकर पूछा, 'मैं सत्य को जानना चाहता हूं, मैं धर्म को जानना चाहता हूं। कृपा करें और मुझे बतायें कि मैं कहां से प्रारंभ करूं?' सद्गुरु ने कहा, 'क्या पास ही पर्वत से गिरते जलप्रपात की ध्वनि सुनाई पड़ रही है?' युवक ने कहा, 'मैं तो उसे भली-भांति सुन रहा हूं।' सद्गुरु बोले, 'तब वहीं से प्रारंभ करो, वहीं से प्रवेश करो। वही द्वार है।' सच ही प्रवेश द्वार इतना ही निकट है- पहाड़ से गिरते झरनों में, हवाओं में डोल रहे वृक्षों के पत्तों में, सागर पर नाच रही सूरज की किरणों में। पर हर प्रवेश द्वार पर पर्दा है और बिना उठाये वह उठता नहीं है। वस्तुत: वह पर्दा प्रवेश-द्वारों पर नहीं है, वह हमारी दृष्ट पर ही है और इस भांति एक परदे ने अनंत द्वारों पर परदा कर दिया है। ओशो.....♡
Sudhir Kumar
कर्मयोग हम गेहूं को बो देते हैं। फिर गेहूं की फसल आती है और गेहूं के साथ भूसा भी आता है। भूसा मूल नहीं है, परिधि है, बाहर का खोल है। गेहूं मूल है--भीतर का छिपा हुआ हिस्सा है। गेहूं के साथ भूसा पैदा होता है। लेकिन आप भूसा बो दें तो गेहूं पैदा नहीं होगा। गेहूं बो दें, भूसा आ जायेगा। अपने आप आ जायेगा। लेकिन भूसा बो दें तो गेहूं आयेगा ही नहीं, भूसा भी नष्ट हो जायेगा। मनुष्य का कर्म जो है, वह भूसे की तरह है। और मनुष्य का "होना' जो है, वह गेहूं की तरह है। अगर भीतर "होना' है तो कर्म बदल जायेगा। जैसा "होना' होगा, वैसा कर्म हो जायेगा। लेकिन बाहर से कर्म बदलता है तो वैसा "होना' नहीं बदल जाता। मेरा जोर "होने' पर है, बीइंग पर। लेकिन कर्मयोग का जोर "कर्म' पर है, "होने' पर नहीं, बीइंग पर नहीं। कर्मयोग कहता है करो--ऐसा करो! ऐसा करोगे तो ऐसे हो जाओगे। गलत है यह बात। "ऐसे' हो जाओगे तो "ऐसा कर्म' हो सकता है। लेकिन ऐसा न करोगे तो ऐसे नहीं हो जाओगे। लेकिन दिखायी कर्म पड़ता है, इसलिए भ्रांति हो जाती है। कोई महावीर हमारे बीच से निकलें तो दिखायी पड़ेगा कि महावीर नग्न हो गये! कर्म है। वस्त्र पहनना एक कर्म है। नग्न हो जाना एक कर्म है। महावीर नग्न हो गये, ऐसा हमें दिखायी पड़ेगा। और फिर दिखायी पड़ेगी महावीर की शांति और महावीर का आनंद और उनके चारों तरफ रहस्य की बहती हुई हवायें और उनकी आंखों में गहराई। वह सब दिखायी पड़ेगा। और दिखायी पड़ेगा यह कर्म कि महावीर नग्न हो गये! हमारे मन में भी खयाल हो सकता है कि अगर मैं भी नग्न हो जाऊं तो जो महावीर को मिला था, वह मुझे भी मिल जायेगा! हम भूसे से गेहूं की तरफ चले। पकड़ लिया हमने कर्म को। महावीर क्या खाते हैं, क्या पीते हैं--यह कर्म है। देखा कि क्या खाते हैं,क्या पीते हैं? कब खाते हैं, कैसे खाते हैं? कब नहीं खाते हैं? कैसे चलते हैं? कैसे उठते हैं? ये कर्म हैं। कैसे बोलते हैं? कैसे नहीं बोलते हैं? यह सब हमने देखा। हमने परिधि को पूरा जांच लिया। हमने कहा कि यह परिधि हम भी पूरी कर लें तो जो इस आदमी के भीतर घटा है, वह हमारे भीतर भी घट जायेगा! तो हम भी उठने लगें ब्रह्ममुहूर्त में! हो जायें नग्न। यह खायें, यह न खायें। ऐसे चलें, ऐसे न चलें। यह हम सब कर लें पूरा। ठीक महावीर जितना करते थे, उतना कर लें। पूरा, इंच भर भी कमी न रह जाये। तो भी भीतर वह पैदा नहीं होगा, जो महावीर के भीतर पैदा हुआ, क्योंकि हम उलटे चल पड़े। घटना को हमने उलटा देखा। महावीर के भीतर--पहले कुछ भीतर भरा हुआ है, तब फिर बाहर फैला है। हमने बाहर से पकड़ा और भीतर चले! भीतर से बाहर की तरफ आ सकते है, बाहर से भीतर की तरफ नहीं जा सकते। बाहर भूसा है, भीतर गेहूं है। महावीर की आंखों में जो शांति दिखायी पड़ती है, महावीर के अस्तित्व में जो निर्मलता दिखायी पड़ती है उनके होने में जो एक इनोसेंस--एक निर्दोष साधक है, वह पहले है। क्योंकि भीतर एक निर्दोष होने का जन्म हो गया है, इसलिए बाहर वे नग्न हो सके। भीतर की निर्दोषता बाहर की नग्नता बन सकी। लेकिन बाहर की नग्नता भीतर की निर्दोषता नहीं बन सकती। नेति नेति ओशो
Sudhir Kumar