#जनाबाई_की_भक्ति_ऐसी_की_भगवान_स्वंय_चक्की_चलाने_लगे
जनाबाई सेविका थीं. उनका सौभाग्य था कि वह संत नामदेव के घर में परिचारिका का काम करती थीं. पानी भरना, झाड़ू लगाना, बर्तन मांजना, कपड़े धोना और चक्की पीसना उनका नित्यकार्य था.
संत के घर में हमेशा भगवान का भजन कीर्तन होता था. भक्ति की अविरल सरिता बहती थी. धीरे धीरे जनाबाई भी इस सरिता में स्नान करने की अभ्यस्त हो गईं. मन और प्राणों के द्वार खुल गए.
भक्ति का प्रवाह अंदर तक होने लगा. अब तो जनाबाई के मुख ही नहीं प्राणों से भी पवित्र भगवन्नाम का का निरंतर उच्चारण होने लगा. एक बार एकादशी के दिन संत नामदेवजी के यहां भक्तमंडली जमा हुई थी.
पूरी रात भगवान विट्ठल का नाम कीर्तन चलता रहा. दिनभर व्रत के चलते जनाबाई ने अन्न ग्रहण नहीं किया था.भक्त जन कीर्तन करते रहे और एक कोने में बैठकर जनाबाई प्रेमाश्रु बहाती रहीं.
आखिरकार भजन खत्म हुआ और जनाबाई घर लौट गईं. पूरी रात की थकान थी, अगले दिन उठने में देर हो गई. जब नींद खुली तो हड़बड़ाकर उठ बैठीं. शीघ्र नित्यकर्म से निवृत होकर भक्त शिरोमणि नामदेव के घर पहुंची. झाड़ू किया, बर्तन मांजे और कपड़े धोने के लिए नजदीक चंद्रभागा नदी के किनारे पहुंचीं.
कपड़े धोते धोते ध्यान आया कि जिस कमरे में कीर्तन होता है उसे व्यवस्थित करना तो भूल ही गईं. कपड़े धोने के लिए डुबाए जा चुके थे. उसे छोड़कर जाना भी संभव नहीं था. जनाबाई का हृद्य अपने आराध्य के लिए पूरी व्यवस्था नहीं कर पाने के बोझ से भर आया. भक्त के मन की पीड़ा भगवान तक पहुंच जाती है. वह तत्काल कोई न कोई उपाय करते हैं.
जनाबाई चिंता में बैठी थीं कि तभी एक वृद्ध महिला वहां आ पहुंची और पूछा कि आखिर किस चिंता में डूबी हो. जनाबाई ने सारी परेशानी बता दी. उन्होंने कहा कि जाओ तुम कीर्तन का कमरा ठीक कर आओ तुम्हारे कपड़े मैं धो दूंगी.
जनाबाई को तो जैसे संजीवनी मिल गई. उन्होंने कहा, माता तुम कपड़े धोना मत. बस केवल देखभाल करती रहो, मैं तुरंत कमरा ठीक करके आती हूं.
जनाबाई को इतना भी अवकाश नहीं था, कि वे सोचतीं कि आखिर ये वृद्धा है कौन और उसके मन की व्यथा उसने इतनी आसानी से कैसे जान ली. वो तुरंत भागीं और कमरे की व्यवस्था करके उल्टे पांव लौटीं.
तभी उन्होंने दूर से देखा की वो वृद्धा जा रही थीं और सारे कपड़े धुल कर सूख रहे थे. कपड़े धुल भी गए, सूख भी गए. यह सारा काम इतनी जल्दी कैसे हो गया. जनाबाई तुरंत उस वृद्धा के पीछे दौड़ीं और उन्हें रोकने की कोशिश की.
तभी उन्हें ठोकर लगी और गिर पड़ीं. थोड़ी देर के लिए दृष्टि ओझल हुई और वृद्धा नजरों के आगे से विलुप्त हो गईं लेकिन गीली मिट्टी पर उनके पैरों के निशान बने हुए थे. जनाबाई तुरंत जाकर वापस लौटीं. भक्त नामदेव जी के यहां सभी भक्त जमा थे. उन्होंने यह घटना सभी को सुनाई. सभी ने आकर पैरों के उस निशान के दर्शन किए.
उस मंडली में बड़े बड़े संत और महात्मा थे, वे तुरंत पहचान गए कि ये तो साक्षात महामाया के पांव के निशान हैं. नामदेव ने कहा जनाबाई तुम धन्य हो जिसके लिए स्वयं महामाया ने आकर कपड़े धोए.
इस घटना के बाद से जनाबाई की दशा ही विचित्र हो गई.
वह भक्ति में इतनी लीन हो गईं, कि उनके रोम रोम से हर समय पवित्र भगवन्नाम निकलने लगा. फिर तो ये रोज की कहानी हो गई. घर के काम काज करते करते जनाबाई विह्वल हो जाया करती थीं. नटखट नागर प्रभु विट्ठल ऐसे की समय की प्रतीक्षा में बैठे रहते थे.
जैसे ही जनाबाई भक्ति और प्रेम में अपनी सुधबुध खोती थीं. भगवान आकर उनकी जगह काम करने लगते थे. कभी चक्की पीस दी, कभी कुछ दूसरा काम कर दिया. जब जनाबाई का भावावेश खत्म होता था. तो उन्हें दिखता कि काम तो हो चुका है.
इन्हीं घटनाओं का वर्णन करते हुए मराठी कवियों ने लिखा है- “जनी संग दलिले” यानी करुणामय प्रभु जनाबाई के साथ चक्की पीसते थे.
गीता में भगवान ने इसीलिए कहा हैः-
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमंवहाम्यहम
(जो अनन्यभाव से मेरी उपासना करता है, उसके योगक्षेम का निर्वाह मैं स्वयं करता हूं)
💞🙏♥️*जय श्री कृष्णा जी*♥️🙏💞
🙏*!! जय जय श्री राधे जी !!*🙏
डाक्टर पोपटमल , पीएच . डी . जब खाना खाकर अध्ययन करने के लिए अपने निजी पुस्तकालय में पहुंचे तो उन्होंने देखा कि उनका चश्मा टेबल पर नहीं है । इससे उन्हें बहुत चिंता हुई कि आखिर चश्मा गया कहां ? वे उदास होकर कुर्सी पर बैठ गए और सामने रखी टेबल पर दोनों कोहनियां टिकाकर हथेलियों पर सिर रखकर चश्मे के संबंध में मनन करने लगे ।
डाक्टर पोपटमल ने सोचा कि हो न हो कोई चश्मा उठाकर ले गया है । अब यह सवाल उठता है कि जिसने चश्मा उठाया या तो उसे स्वयं कम दिखाई पड़ता है अथवा उसे ठीक दिखाई पड़ता है ।
यदि उसकी आंखें कमजोर हैं तो वह मेरे चश्मे को कैसे उठाकर ले जा सकता है , क्योंकि उसके पास स्वयं की ऐनक होनी ही चाहिए । और यदि किसी ठीक आंख वाले ने चश्मा उठाया होगा, तो वह उसका करेगा क्या ? इससे सिद्ध होता है कि किसी ने मेरा चश्मा नहीं उठाया ।
बगल की ही टेबल पर बैठे पोपटमल के दोस्त पंडित तोताराम शास्त्री ने पूछा क्या बात है , डाक्टर ? इतने परेशान क्यों लग रहे हो , यार ? मुझे कहो , शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं ।
पोपटमल बोले , भाई शास्त्री , मेरा चश्मा न जाने कहां चला गया । चूंकि चश्मा अपने आप कहीं जा नहीं सकता , इससे सिद्ध होता है कि कोई न कोई उसे जरूर उठा ले गया है । चूंकि स्वस्थ आंखों वाला कोई व्यक्ति तो उसे उठा सकता नहीं , और न ही कमजोर
आंखों वाला उसे उठाकर ले जा सकता है , क्योंकि उसके पास उसका खुद का चश्मा होगा । आप ही इस समस्या को सुलझाइए ।
पंडित तोताराम शास्त्री ने दो मिनट सोचने के बाद कहा ,यह भी तो हो सकता है कि कोई आपके चश्मे को बेचने के खयाल से चुरा ले गया हो ।
पोपटमल बोले , ऐसा संभव नहीं । क्योंकि चोर जिसे वह चश्मा बेचेगा उसकी आंखें निश्चित ही कमजोर होंगी । और जैसा किमैं पहले ही कह चुका हूं कि उसके पास पहले से ही स्वयं का चश्मा होगा ।
इस पर तोताराम शास्त्री बोले , मगर हो सकता है कि किसी कमजोर आंख वाले व्यक्ति का चश्मा टूट-फूट गया हो और उसे नए चश्मे की जरूरत हो । तो या तो वह स्वयं चश्मा उठाकर ले गया , या फिर कोई उसे चश्मा बेचने के खयाल से चुरा ले गया ।
डाक्टर पोपटमल ने तुरंत फोन पर शहर के एकमात्र नेत्र-विशेषज्ञ से बात की और पता लगाया कि जिस नंबर का चश्मा वे लगाते हैं , उस नंबर का चश्मा शहर में किसी और आदमी का भी है या नहीं ? नेत्र-विशेषज्ञ ने बताया कि उस नंबर का चश्मा शहर में किसी दूसरे आदमी को नहीं लगता ।
बिशेषज्ञ के इस उत्तर से शास्त्री जी की परिकल्पना गलत साबित हो गई । करीब आधा घंटे तक दोनों दार्शनिक गंभीर मुद्रा बनाए चिंतन करते रहे । तब अचानक पंडित तोताराम शास्त्री ने उछलकर
अलमारी से एक किताब निकाली और उसमें से पढ़कर बताया कि कभी-कभी ऐसा भी होता है कि लोग चश्मे को भोजन करते वक्त या किसी से बातें करते समय माथे पर ऊपर चढा़ लेते हैं और फिर
भूल जाते हैं ।
डाक्टर पोपटमल के चेहरे पर प्रसन्नता छा गई , उन्होंने कहा , हे राम , यह बात तो मेरे दिमाग में आई ही नहीं । हो न हो ऐसा ही हुआ होगा । अब सवाल यह उठता है कि इस कमरे में हम सिर्फ दो ही आदमी हैं , कोई और इस कमरे में आया नहीं है , तो या तो चश्मा मेरे माथे पर चढा़ होगा या फिर शास्त्री जी आपके माथे पर । चूंकि मुझे आपके माथे पर कोई चश्मा दिखाई नहीं देता ,
इससे साफ प्रमाणित होता है कि चश्मा मेरे ही माथे पर होना चाहिए ।
वैसे तो सत्य का पता लगाने के लिए तार्किक निष्कर्ष ही अकेले काफी हैं , किंतु कुछ विद्वानों का मत है कि लिखा-लिखी की है नहीं देखा-देखी बात , इसलिए तार्किक निष्पत्ति के अलावा मैं आंखों देखा प्रमाण ही प्राप्त करूंगा । ऐसा कहते हुए पोपटमल उठे और आईने के सामने जा पहुंचे ।और अपने माथे पर चढे़ हुए चश्मे की प्रतिछवि आईने में देखकर खुशी में चिल्ला उठे मिल गया , मिल गया ! यूरेका , यूरेका !!
चश्मा मिलने की खुशी में वे इतने जोर से उछले कि चश्मा खिसककर नीचे गिरा और चकनाचूर हो गया ।
पंडितों से ज्यादा मूढ़ इस जगत में कोई और नहीं है ।
पंडितों ने अनर्थ कर डाला है ।
मेरे पास उनकी ही जरूरत है जो पांडित्य की धूल झाड़ सकते हों । जिनमें इतनी हिम्मत हो कि फिर से बच्चों की तरह भोले हो जाएं , सरल हो जाएं । उतारकर रख दें सारा बोझ -- सिद्धांतो का, शास्त्रों का, शिक्षाओं का । और तब तुम्हारे पास वैसी तीखी नजर , वैसी पैनी नजर आ जाती है जो जीवन के सारे रहस्यों को देखने
में समर्थ है । तभी आदमी भूल से बच सकता है ।
सदगुरू ओशो
पीवत रामरस लगी खुमारी
प्रवचन 9/ जिन डूबे तिन ऊबरे