Sudhir Kumar

धर्म तो एक ही है, सार्वभौमिक है, यूनिवर्सल है। परमात्मा के नियम सब पर समान रूप से लागू होते है, चाहे कोई अपने को हिन्दु कहे, चाहे मुस्लिम , चाहे, सिख, चाहे ईसाई , चाहे बौध, चाहे जैन कहे, कुछ कहे, चाहे नास्तिक ही क्यों न कहे, क़ुदरती व्यवस्था , प्रकृति का अनुशासन सब पर समान रूप से काम करता है। इसलिए धर्म विभिन्न नहीं हो सकते, विभिन्न दिखाई पड़ते है उन्हें , जिन्हे धर्म की कोई अनुभूति न हुई हो, जो बहुत ऊपर ऊपर से धार्मिक है, धर्म के तत्व को अभी तक अनुभव न किया हो, और ऐसे लोग ही धर्म के नाम पर विवाद खड़े करते है। जिसे भी धर्म की ज़रा सी भी अनुभूति हुई हो , उसे सारे धर्म एक ही जान पड़ते है , उन्हें धर्मों में कोई भेद दिखाई नहीं पड़ता, उसे मन्दिर भी प्यारा है, और मस्जिद भी, गिरजा भी, गुरुद्वारा भी, बुद्धविहार भी, उसे गीता भी उतनी ही प्यारी है, जितनी क़ुरान , जितनी बाइबिल , जितना गुरूग्रन्थ साहिब, जितना धम्मपद और महावीर की वाणी भी।

Sudhir Kumar

जानना बड़ी और बात है, जानने का भ्रम और सत्य के संबंध में जाना जा सकता है। बहुत जाना जा सकता है। सारे विश्व के पुस्तकालय भरे पड़े हैं, पटे पड़े हैं। मगर वह सत्य को जानने की व्यवस्था नहीं है। सत्य को जानने की प्रक्रिया तो ठीक उलटी है। सब कोटियां तोड़ देनी होंगी, सब शृंखलाएं विसर्जित कर देनी होंगी, सारी धारणाओं को नमस्कार कर लेना होगा--आखिरी नमस्कार! हिंदू की धारणा, मुसलमान की, ईसाई की, जैन की बौद्ध की, सिक्ख की, पारसी की, सारी धारणाओं को विदा कर देना होगा। क्योंकि जब तक तुम्हारी धारणाएं हैं, जब तक तुम्हारे पक्षपात हैं, जब तक तुम मान कर चल रहे हो, तब तक तुम उसे न जाने सकोगे जो है। तुम्हारी मान्यता उस पर आरोपित हो जाएगी। तुम्हारी आंखों पर चश्मा लगा है तो उसको रंग तुम्हें भ्रांति देगा क्योंकि उसका रंग तुम्हारे चारों तरफ हावी हो जाएगा। और क्या है हिंदू होना और मुसलमान होना और जैन होना? चश्मे हैं। अलग-अलग रंग के। और जिस रंग से तुम देखोगे, वही रंग सारे अस्तित्व का दिखाई पड़ने लगेगा। अस्तित्व को देखना हो तो चश्मे उतार देना जरूरी है। शास्त्री के बोझ से मुक्त हो जाना जरूरी है। और जब तुम्हारे भीतर कोई भी ज्ञान नहीं रह जाता तब निर्दोषता का जन्म होता है। तब तुम्हारे भीतर वही हृदय होता है, जो तुम बच्चे की तरह लेकर आए थे। वही सरलता, वही जिज्ञासा, वही जानने की आतुरता। पंडित में जानने की आतुरता नहीं होती। वह तो जाने ही बैठा है! एक मित्र ने प्रश्न पूछा है...प्रमोद उनका नाम है...कि आपको समझना इतना कठिन क्यों है? मुझे समझना कठिन नहीं है, मैं तो बहुत सीधी-सादी भाषा बोल रहा हूं, लेकिन वह जो प्रमोद के साथ "पंडित' जुड़ा है उस "पंडित' ने उपद्रव कर दिया है। वह "पंडित' नहीं समझने देगा। पांडित्य ने कभी किसी को नहीं समझने दिया। जीसस को सूली पर चढ़ाया? पंडितों ने। यहूदी धर्म के पंडित थे। किसने मंसूर के हाथ-पैर काटे, गर्दन काटी? मुसलमान पंडितों ने। मौलवियों ने, इमामों ने, अयातुल्लाओं ने। वे उनके पंडित थे। मंसूर से चूक गये, जीसस से चूक गये। बुद्ध को किसने इनकार किया इस देश में इस? देश से कैसे बुद्ध की अदभुत सुगंध तिरोहित हो गयी? पंडितों का जाल! उनके बर्दाश्त के बाहर हो गया। और कारण है उनके बर्दाश्त के बाहर होने का। पंडित का एक स्वार्थ है, बहुत गहरा स्वार्थ है। उसका ज्ञान खतरे में है। अगर वह बुद्धों की सुने, तो उसे पहली तो बात यह करनी होगी कि ज्ञानी को छोड़ने का साहस, जुटाना होगा। और ज्ञान को छोड़ना ये है जैसे कि कोई उससे प्राण छोड़ने को कह रहा हो। वही तो उसी संपदा है। वही उसकी धरोहर है। उसी के बल पर तो उसके अहंकार में सजावट है, शृंगार है। वही तो उसका आभूषण है। वही तो है उसके पास, और तो कुछ भी नहीं है। वह शास्त्रों का बोझ ही तो उसे भ्रम दे रहा है--जानने का। लेकिन जानना बड़ी और बात है, जानने का भ्रम और। अज्ञान से आदमी नहीं भटकता इतना, जीना जानने के भ्रम से भटक जाता है। क्योंकि अज्ञानी कम से कम इतना तो अनुभव करता है कि मुझे पता नहीं। इतनी तो उसमें प्रामाणिकता होती है कि मुझे पता नहीं। लेकिन पंडित में यह प्रामाणिकता भी नहीं होती। पता तो नहीं है, मगर उसे ख्याल होता है मुझे पता है। उसने बिना जाने मान लिया है कि जान लिया। अब कैसे जानेगा? उसके जानने की दीवार बीच में खड़ी हो गयी। ज्ञान से नहीं जाना जाता सत्य, सत्य ध्यान से जाना जाता है। और ध्यान का अर्थ होता है: मन का अतिक्रमण। मनातीत हो जान। दीपक बारा नाम का ओशो

Sudhir Kumar

विरक्त होने के लिए आसक्ति का होना जरूरी है, नहीं तो विरक्त कैसे होओगे? जैसे ठंडक और गर्मी एक ही थर्मामीटर से नापे जाते हैं, वैसा ही तुम्हारा भोग और योग है, वैसी ही विरक्ति और आसक्ति है, वैसी ही परतंत्रता स्वतंत्रता है, वैसी ही अहंकार और विनम्रता है। जरा भी भेद नहीं है। यह एक ही द्वंद्व का विस्तार है। मगर सदियों तक हमें समझाया गया है तो हमारा संस्कार गहरा हो गया है। हम कहते हैं देखो, फलां आदमी कितना विनम्र! कैसा विनम्र! मगर तुम विनम्र आदमी के भीतर झांककर देखो, तो पाओगे वही अहंकार शीर्षासन कर रहा है अब। शीर्षासन करने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। पहले अकड़ थी कि मैं बहुत कुछ हूं, सब कुछ हूं, अब अकड़ है कि मैं ना कुछ हूं; मगर अकड़ कायम है, अकड़ जरा भी नहीं बदली। पहले धन के लिए दीवाना था, अब ऐसा डर गया है कि कहीं धन पड़ा हो, तो कंपने लगता है। चीन में बड़ी प्रसिद्ध कथा है। एक फकीर की बड़ी ख्याति हो गई। ख्याति हो गई कि वह निर्भय हो गया है। और निर्भयता अंतिम लक्षण है। एक दूसरा फकीर उसके दर्शन को आया। वह फकीर जो निर्भय हो गया था, समस्त भयों से मुक्त हो गया था, बैठा था एक चट्टान पर। सांझ का वक्त, और पास ही सिंह दहाड़ रहे थे। मगर वह बैठा था शांत, जैसे कुछ भी नहीं हो रहा है। दूसरा फकीर आया, तो सिंहों की दहाड़ सुनकर कंपने लगा, दूसरा फकीर कंपने लगा। निर्भय हो गया फकीर बोला: तो अरे, तो तुम्हें अभी भी भय लगता है! तुम अभी भी भयभीत हो! फिर क्या खाक साधना की, क्या ध्यान साधा, क्या समाधि पाई! कंप रहे हो सिंह की आवाज से, तो अभी अमृत का तुम्हें दर्शन नहीं हुआ, अभी मृत्यु तुम्हें पकड़े हुए है! उस कंपते फकीर ने कहा कि मुझे बड़ी जोर की प्यास लगी है, पहले पानी, फिर बात हो सके। मेरा कंठ सूख रहा है, मैं बोल न सकूंगा। निर्भय हो गया फकीर अपनी गुफा में गया पानी लेने। जब तक वह भीतर गया, उस दूसरे फकीर ने, जहां बैठा था निर्भय फकीर, उस पत्थर पर लिख दिया बड़े—बड़े अक्षरों में: नमो बुद्धाय—बुद्ध को हो नमस्कार। आया फकीर पानी लेकर। जैसे ही उसने पैर रखा चट्टान पर, देखा नमो बुद्धाय पर पैर पड़ गया, मंत्र पर पैर पड़ गया; झिझक गया एक क्षण। आगंतुक फकीर हंसने लगा और उसने कहा: डर तो अभी तुम्हारे भीतर भी है। सिंह से न डरते होओ, लेकिन पत्थर पर मैंने एक शब्द लिख दिया—नमो बुद्धाय, इस पर पैर रखने से तुम कंप गए! भय तो अभी तुम्हें भी है। भय ने सिर्फ रूप बदला है, बाहर से भीतर जा छिपा है, चेतन से अचेतन हो गया है। भय कहीं गया नहीं है। निर्भय आदमी में भय नहीं जाता, सिर्फ भय नए रूप ले लेता है, निर्भयता का आवरण ओढ़ लेता है। जो व्यक्ति समाधिस्थ होता है, न तो भयभीत होता है, न निर्भय होता है। निर्भय होने के लिए भी भय का होना जरूरी है, नहीं तो निर्भय कैसे होओगे? विरक्त होने के लिए आसक्ति का होना जरूरी है, नहीं तो विरक्त कैसे होओगे? कहै वाजिद पुकार ओशो

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