सूचना
यह तीन जगह क्यों जाना आवश्यक है
1- अपने कुल देवता के यहाँ पर हर वर्ष एक बार जाना चाहिए
2- अपनी कुल देवी के यहाँ पर हर वर्ष एक बार जाना चाहिए
3- गुरु पूर्णिमा पर गुरु के यहाँ पर जाना चाहिए क्योंकि गुरु के यहाँ पर गुरु अपने गुरु की पूजा करते हैं उनको भोग लगाने के बाद वह प्रसाद सब शिष्यों को देते हैं या बिठाकर प्रसाद वितरण करते हैं
वर्ष भर गुरु जी और दादा गुरु अपने आशीर्वाद रखते हैं और मुसीबतों से बचाव करते हैं
इसलिए हर वर्ष यहाँ जाना चाहिए
नहीं समझ में आये तो प्रश्न पूछ सकते हो
*🔥दरिया का रास्ता🔥*
*एक बार की बात है एक बहुत ही पुण्य व्यक्ति अपने परिवार सहित तीर्थ के लिए निकला .. कई कोस दूर जाने के बाद पूरे परिवार को प्यास लगने लगी, ज्येष्ठ का महीना था , आस पास कहीं पानी नहीं दिखाई पड़ रहा था .. उसके बच्चे प्यास से ब्याकुल होने लगे .. समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करे ... अपने साथ लेकर चलने वाला पानी भी समाप्त हो चुका था!!*
*एक समय ऐसा आया कि उसे भगवान से प्रार्थना करनी पड़ी कि हे प्रभु अब आप ही कुछ करो मालिक... इतने में उसे कुछ दूर पर एक साधू तप करता हुआ नजर आया.. व्यक्ति ने उस साधू से जाकर अपनी समस्या बताई ... साधू बोले की यहाँ से एक कोस दूर उत्तर की दिशा में एक छोटी दरिया बहती है जाओ जाकर वहां से पानी की प्यास बुझा लो...*
*साधू की बात सुनकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुयी और उसने साधू को धन्यवाद बोला..पत्नी एवं बच्चो की स्थिति नाजुक होने के कारण वहीं रुकने के लिया बोला और खुद पानी लेने चला गया..*
*जब वो दरिया से पानी लेकर लौट रहा था तो उसे रास्ते में पांच व्यक्ति मिले जो अत्यंत प्यासे थे.. पुण्य आत्मा को उन पांचो व्यक्तियों की प्यास देखि नहीं गयी और अपना सारा पानी उन प्यासों को पिला दिया..जब वो दोबारा पानी लेकर आ रहा था तो पांच अन्य व्यक्ति मिले जो उसी तरह प्यासे थे...पुण्य आत्मा ने फिर अपना सारा पानी उनको पिला दिया...*
*यही घटना बार बार हो रही थी...और काफी समय बीत जाने के बाद जब वो नहीं आया तो साधू उसकी तरफ चल पड़ा....बार बार उसके इस पुण्य कार्य को देखकर साधू बोला-"हे पुण्य आत्मा तुम बार बार अपना बाल्टी भरकर दरिया से लाते हो और किसी प्यासे के लिए ख़ाली कर देते हो ... इससे तुम्हे क्या लाभ मिला ...? पुण्य आत्मा ने बोला मुझे क्या मिला ? या क्या नहीं मिला इसके बारें में मैंने कभी नहीं सोचा..पर मैंने अपना स्वार्थ छोड़कर अपना धर्म निभाया..*
*साधू बोला-"ऐसे धर्म निभाने से क्या फ़ायदा जब तुम्हारे अपने बच्चे और परिवार ही जीवित ना बचे ? तुम अपना धर्म ऐसे भी निभा सकते थे जैसे मैंने निभाया..*
*पुण्य आत्मा ने पूछा-"कैसे महाराज ?*
*साधू बोला-"मैंने तुम्हे दरिया से पानी लाकर देने के बजाय दरिया का रास्ता ही बता दिया... तुम्हे भी उन सभी प्यासों को दरिया का रास्ता बता देना चाहिए था...* *ताकि तुम्हारी भी प्यास मिट जाये और अन्य प्यासे लोगो की भी... फिर किसी को अपनी बाल्टी ख़ाली करने की जरुरत ही नहीं..."इतना कहकर साधू अंतर्ध्यान हो गया...*
*पुण्य आत्मा को सब कुछ समझ आ गया की अपना पुण्य ख़ाली कर दुसरो को देने के बजाय, दुसरो को भी पुण्य अर्जित करने का रास्ता या विधि बताये..*
*अगर किसी के बारे में अच्छा सोचना है तो उसे उस परमात्मा से जोड़ दो ताकि उसे हमेशा के लिए लाभ मिले!!!*
श्री सूक्त में सूत्ररूप में रहस्यमय प्रमाण-----_
ऋग्वेदीय श्री सूक्त के पाठ से घर में बरसेगी माँ लक्ष्मीजी की कृपा, चल-सम्पत्ति के साथ धन की अधिष्ठात्री देवी भगवती माता लक्ष्मी जी हैं। भगवती माता श्री लक्ष्मी जी का अभिषेक श्री सूक्त के द्वारा होता है। मन्दिरों में माता लक्ष्मी जी की मूर्ति प्राण-प्रतिष्ठा एवं नेत्रोन्मीलन के अवसर पर लक्ष्मी जी की प्रतिमा का न्यास भी विशेष रूप श्री सूक्त के मन्त्रों के द्वारा ही होता है॥ माता लक्ष्मी देवी की प्रतिमा का अङ्गन्यास एवं करन्यास भी लक्ष्मी-गायत्री मन्त्र के द्वारा होता है। माता लक्ष्मी जी की मूर्ति प्राण-प्रतिष्ठा के बाद श्री सूक्त द्वारा उनका अभिषेक एवं षोडश उपचार विधि से पूजन होता है तथा मूर्ति प्रतिष्ठा के बाद श्री सूक्त के मन्त्रों द्वारा ही यज्ञ में घी, पायस(खीर) एवं कमलगट्टे के द्वारा हवन करने का विधान है तभी माता लक्ष्मी जी पूर्ण कृपा प्राप्त होती है।
माँ लक्ष्मी अपने भक्तों की धन से जुड़ी हर तरह की समस्याएं दूर करती हैं। इतना ही नहीं, देवी साधकों को यश और कीर्ति भी देती हैं।इनकी पूजा से धन की प्राप्ति होती है, साथ ही वैभव भी मिलता है।
आनन्द, कर्दम, चिक्लीत आदि ऋषि भगवती माता लक्ष्मी जी के पुत्र हैं। अत: श्री सूक्त के मन्त्रदृष्टा ऋषि आनन्द, कर्दम आदि हैं। श्री सूक्त के प्रथम मन्त्र में जातवेदा अग्नि का नाम आता है। जातवेदा अग्नि अग्निहौत्र के सभी अग्नियों के पिता हैं। श्रीमद भागवत महापुराण के नवम स्कन्ध के १४वें अध्याय के श्लोक संख्या ४३ से ४९ तक ऋग्वेद के श्री सूक्त में वर्णित जातवेदा अग्नि के प्राकट्य का प्रमाण है----
स्थालीम् न्यस्य वने गत्वा गृहानाध्यायतो निशि।
त्रेतायां संप्रवृत्तायां मनसि त्रय्यवर्तत ॥
स्थालीस्थानम् गतोSश्वत्थम् शमीगर्भम् विलक्ष्य स:।
तेन द्वे अरणी कृत्वा उर्वशीलोककाम्यया ॥
उर्वशीम् मन्त्रतो ध्यायन्नधरारणिमुत्तराम् ।
आत्मानमुभयोर्मध्ये यत् तत् प्रजननम् प्रभु: ॥
तस्य निर्मन्थनाज्जातो जातवेदा विभावसु:।
त्रय्या स विद्यया राज्ञा पुत्रत्वे कल्पितस्त्रिवृत् ॥----------
आदि भागवत के श्लोकों से यह प्रमाणित होता है कि वैवस्वत मन्वंतर के प्रथम त्रेतायुग के प्रारम्भ में चन्द्रवंशी राजा पुरुरवा के हृदय में तीनों वेद (वेदत्रयी) प्रकट हुए तथा राजा पुरुरवा ने जंगल में जाकर मन्त्रों के द्वारा अरणीमन्थन किया जिससे जातवेदा अग्नि प्रकट हुअा। इस जातवेदा अग्नि को राजा पुरुरवा ने पुत्ररूप में स्वीकार किया तथा जातवेदा अग्नि के द्वारा आहवनीय, गार्हपत्य एवं दक्षिणाग्नि ये तीन अग्नियां प्रकट हुईं। इसीलिए जातवेदा अग्नि इन तीनों अग्नियों का पिता है। इन तीनों अग्नियों को राजा पुरुरवा ने पुत्र रूप में स्वीकार किया। इस दूसरे युग के आरम्भ में अग्नि त्रयी एवं वेद त्रयी के प्राकट्य होने के कारण इस युग का नाम '' त्रेतायुग'' हुअा। त्रेतायुग से श्रौत यज्ञों और स्मार्त यज्ञों का अनुष्ठान शुरू हुअा।
दूसरा प्रमाण---श्रीमद भागवत महापुराण के तृतीय स्कन्ध में वर्णित प्रथम प्रजापति कर्दम के द्वारा सृष्टि प्रसंग का प्रमाण सबसे पहले ऋग्वेद के श्रीसूक्त के ११ वें मन्त्र में दिया गया है-- '' कर्दमेन प्रजा भूता मयि सम्भव कर्दम।'' कर्दम के प्रजा उत्पन्न हुई। अत: सूत्र रूप श्री सूक्त में सृष्टि वर्णन भी दिया गया है॥
ऐसा कहा जाता है कि अगर लक्ष्मी रुष्ट हो जाएं, तो घोर दरिद्रता का सामना करना पड़ता है।देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने लिए श्री सूक्त का पाठ इस प्रकार से है - - -
श्रीसूक्त का पाठ
हरिः ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥1॥
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥2॥
अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम् ॥3॥
कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम् ।
पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥4॥
चन्द्राम् प्रभासां यशसा ज्वलन्तीम् श्रियम् लोके देवजुष्टामुदाराम् ।
तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे ॥5॥
आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः ।
तस्य फलानि तपसानुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ॥6॥
उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ॥7॥
क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद गृहात् ॥8॥
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥9॥
मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः ॥10॥
कर्दमेन प्रजाभू