Sudhir Kumar

॥ वेदों में नारी 📚 वेद नारी को अत्यंत महत्वपूर्ण, गरिमामय, उच्च स्थान प्रदान करते हैं| वेदों में स्त्रियों की शिक्षा- दीक्षा, शील, गुण, कर्तव्य, अधिकार और सामाजिक भूमिका का जो सुन्दर वर्णन पाया जाता है, वैसा संसार के अन्य किसी धर्मग्रंथ में नहीं है| वेद उन्हें घर की सम्राज्ञी कहते हैं और देश की शासक, पृथ्वी की सम्राज्ञी तक बनने का अधिकार देते हैं| वेदों में स्त्री यज्ञीय है अर्थात् यज्ञ समान पूजनीय| वेदों में नारी को ज्ञान देने वाली, सुख – समृद्धि लाने वाली, विशेष तेज वाली, देवी, विदुषी, सरस्वती, इन्द्राणी, उषा- जो सबको जगाती है इत्यादि अनेक आदर सूचक नाम दिए गए हैं| वेदों में स्त्रियों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है – उसे सदा विजयिनी कहा गया है और उन के हर काम में सहयोग और प्रोत्साहन की बात कही गई है| वैदिक काल में नारी अध्यन- अध्यापन से लेकर रणक्षेत्र में भी जाती थी| जैसे कैकयी महाराज दशरथ के साथ युद्ध में गई थी| कन्या को अपना पति स्वयं चुनने का अधिकार देकर वेद पुरुष से एक कदम आगे ही रखते हैं| अनेक ऋषिकाएं वेद मंत्रों की द्रष्टा रचयिता हैं – अपाला, घोषा, यामी, वपुना, वेदवती, सरस्वती, सर्पराज्ञी, सूर्या, सावित्री, अदिति- दाक्षायनी, लोपामुद्रा, विश्ववारा, आत्रेयी आदि के नाम प्रमुख हैं | आइए, वेदों में नारी के स्वरुप की झलक इन मंत्रों में देखें - अथर्ववेद ११.५.१८ ब्रह्मचर्य सूक्त के इस मंत्र में कन्याओं के लिए भी ब्रह्मचर्य और विद्या ग्रहण करने के बाद ही विवाह करने के लिए कहा गया है | यह सूक्त लड़कों के समान ही कन्याओं की शिक्षा को भी विशेष महत्त्व देता है | कन्याएं ब्रह्मचर्य के सेवन से पूर्ण विदुषी और युवती होकर ही विवाह करें | अथर्ववेद १४.१.६ माता- पिता अपनी कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धीमत्ता और विद्याबल का उपहार दें | वे उसे ज्ञान का दहेज़ दें | जब कन्याएं बाहरी उपकरणों को छोड़ कर, भीतरी विद्या बल से चैतन्य स्वभाव और पदार्थों को दिव्य दृष्टि से देखने वाली और आकाश और भूमि से सुवर्ण आदि प्राप्त करने – कराने वाली हो तब सुयोग्य पति से विवाह करे | अथर्ववेद १४.१.२० हे पत्नी ! हमें ज्ञान का उपदेश कर | वधू अपनी विद्वत्ता और शुभ गुणों से पति के घर में सब को प्रसन्न कर दे | अथर्ववेद ७.४६.३ पति को संपत्ति कमाने के तरीके बता | संतानों को पालने वाली, निश्चित ज्ञान वाली, सह्त्रों स्तुति वाली और चारों ओर प्रभाव डालने वाली स्त्री, तुम ऐश्वर्य पाती हो | हे सुयोग्य पति की पत्नी, अपने पति को संपत्ति के लिए आगे बढ़ाओ | अथर्ववेद ७.४७.१ हे स्त्री ! तुम सभी कर्मों को जानती हो | हे स्त्री ! तुम हमें ऐश्वर्य और समृद्धि दो | अथर्ववेद ७.४७.२ तुम सब कुछ जानने वाली हमें धन – धान्य से समर्थ कर दो | हे स्त्री ! तुम हमारे धन और समृद्धि को बढ़ाओ | अथर्ववेद ७.४८.२ तुम हमें बुद्धि से धन दो | विदुषी, सम्माननीय, विचारशील, प्रसन्नचित्त पत्नी संपत्ति की रक्षा और वृद्धि करती है और घर में सुख़ लाती है | अथर्ववेद १४.१.६४ हे स्त्री ! तुम हमारे घर की प्रत्येक दिशा में ब्रह्म अर्थात् वैदिक ज्ञान का प्रयोग करो | हे वधू ! विद्वानों के घर में पहुंच कर कल्याणकारिणी और सुखदायिनी होकर तुम विराजमान हो | अथर्ववेद २.३६.५ हे वधू ! तुम ऐश्वर्य की नौका पर चढ़ो और अपने पति को जो कि तुमने स्वयं पसंद किया है, संसार – सागर के पार पहुंचा दो | हे वधू ! ऐश्वर्य कि अटूट नाव पर चढ़ और अपने पति को सफ़लता के तट पर ले चल | अथर्ववेद १.१४.३ हे वर ! यह वधू तुम्हारे कुल की रक्षा करने वाली है | हे वर ! यह कन्या तुम्हारे कुल की रक्षा करने वाली है | यह बहुत काल तक तुम्हारे घर में निवास करे और बुद्धिमत्ता के बीज बोये | अथर्ववेद २.३६.३ यह वधू पति के घर जा कर रानी बने और वहां प्रकाशित हो | अथर्ववेद ११.१.१७ ये स्त्रियां शुद्ध, पवित्र और यज्ञीय ( यज्ञ समान पूजनीय ) हैं, ये प्रजा, पशु और अन्न देतीं हैं | यह स्त्रियां शुद्ध स्वभाव वाली, पवित्र आचरण वाली, पूजनीय, सेवा योग्य, शुभ चरित्र वाली और विद्वत्तापूर्ण हैं | यह समाज को प्रजा, पशु और सुख़ पहुँचाती हैं | अथर्ववेद १२.१.२५ हे मातृभूमि ! कन्याओं में जो तेज होता है, वह हमें दो | स्त्रियों में जो सेवनीय ऐश्वर्य और कांति है, हे भूमि ! उस के साथ हमें भी मिला | अथर्ववेद १२.२.३१ स्त्रियां कभी दुख से रोयें नहीं, इन्हें निरोग रखा जाए और रत्न, आभूषण इत्यादि पहनने को दिए जाएं | अथर्ववेद १४.१.२० हे वधू ! तुम पति के घर में जा कर गृहपत्नी और सब को वश में रखने वाली बनों | अथर्ववेद १४.१.५० हे पत्नी ! अपने सौभाग्य के लिए मैं तेरा हाथ पकड़ता हूं | अथर्ववेद १४.२ .२६ हे वधू ! तुम कल्याण करने वाली हो और घरों को उद्देश्य तक पहुंचाने वाली हो | अथर्ववेद १४.२.७१ हे पत्नी ! मैं ज्ञानवान हूं तू भी ज्ञानवती है, मैं सामवेद हूं तो तू ऋग्वेद है |

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अंतिम ऋण चिता की लकड़ी का क्या आप जानते हैं मृत्यु के बाद भी कुछ ऋण होते हैं जो मनुष्य का पीछा करते रहते हैं। हिंदू धर्म शास्त्रों में पांच प्रकार के ऋण बताए गए हैं देव ऋण, पितृ ऋण, ऋषि ऋण, भूत ऋण और लोक ऋण। इनमें से प्रथम चार ऋण तो मनुष्य के इस जन्म के कर्म के आधार पर अगले जन्म में पीछा करते हैं। इनमें से पांचवां ऋण यानी लोक ऋण अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। प्रथम चारों ऋण तो मनुष्य पर जीवित अवस्था में चढ़ते हैं, जबकि लोक ऋण मृत्यु के पश्चात चढ़ता है। जब मनुष्य की मृत्यु होती है तो उसके दाह संस्कार में जो लकड़ियां उपयोग की जाती हैं दरअसल वही उस पर सबसे अंतिम ऋण होता है। यह ऋण लेकर जब मनुष्य नए जन्म में पहुंचता है तो उसे प्रकृति से जुड़े अनेक प्रकार के कष्टों का भोग करना पड़ता है। उसे प्रकृति से पर्याप्त पोषण और संरक्षण नहीं मिलने से वह गंभीर रोगों का शिकार होता है। मनुष्य की मृत्यु के बाद सुनाए जाने वाले गरूड़ पुराण में भी स्पष्ट कहा गया है कि जिस मनुष्य पर लोक ऋण बाकी रहता है उसकी अगले जन्म में मृत्यु भी प्रकृति जनित रोगों और प्राकृतिक आपदाओं, वाहन दुर्घटना में होती है। ऐसा मनुष्य जहरीले जीव-जंतुओं के काटे जाने से मारा जाता है। कैसे उतारें लोक ऋण शास्त्रों में कहा गया है कि लोक ऋण उतारने का एकमात्र साधन है प्रकृति का संरक्षण। चूंकि मनुष्य पर अंतिम ऋण चिता की लकड़ी का होता है, इसलिए अपने जीवनकाल में प्रत्येक मनुष्य को अपनी आयु की दशांश मात्रा में वृक्ष अनिवार्य रूप से लगाना चाहिए। कलयुग में मनुष्य की आयु सौ वर्ष मानी गई है। इसका दशांश यानी 10 छायादार, फलदार पेड़ प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवनकाल में लगाना ही चाहिए।

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ॐ नमो भगवते वासुदेवाये नमः || श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनाशीतितम अध्याय बल्वल का उद्धार और बलराम जी कि तीर्थयात्रा श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! पर्व का दिन आने पर बड़ा भयंकर अंधड़ चलने लगा। धूल की वर्षा होने लगी और चारों ओर से पीब की दुर्गन्ध आने लगी। इसके बाद यज्ञशाला में बल्वल दानव ने मल-मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओं की वर्षा की। तदनन्तर हाथ में त्रिशूल लिये वह स्वयं दिखायी पड़ा। उस का डील-डौल बहुत बड़ा था, ऐसा जान पड़ता मानो ढेर-का-ढेर कालिख इकठ्ठा कर दिया गया हो। उसकी चोटी और दाढ़ी-मूँछ तपे हुए ताँबे के समान लाल-लाल थीं। बड़ी-बड़ी दाढ़ों और भौंहों के कारण उसका मुँह बड़ा भयावना लगता था। उसे देखकर भगवान बलराम जी ने शत्रु सेना की कुंदी करने वाले मूसल और दैत्यों को चीर-फाड़ डालने वाले हल का स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही वे दोनों शस्त्र तुरंत वहाँ आ पहुँचे । बलराम जी ने आकाश में विचरने वाले बल्वल दैत्य को अपने हल के अगले भाग से खींचकर उस ब्रह्मद्रोही के सिर पर बड़े क्रोध से एक मूसल कसकर जमाया, जिससे उसका ललाट फट गया और वह खून उगलता तथा आर्तस्वर से चिल्लाता हुआ धरती पर गिर पड़ा, ठीक वैसे ही जैसे वज्र की चोट खाकर गेरू आदि से लाल हुआ कोई पहाड़ गिर पड़ा हो। नैमिषारण्यवासी महाभाग्यवान् मुनियों ने बलराम जी की स्तुति की, उन्हें कभी न व्यर्थ होने वाले आशीर्वाद दिये और जैसे देवता लोग देवराज इन्द्र का अभिषेक करते हैं, वैसे ही उनका अभिषेक किया। इसके बाद ऋषियों ने बलराम जी को दिव्य वस्त्र और दिव्य आभूषण दिये तथा एक ऐसी वैजन्ती की माला भी दी, जो सौन्दर्य का आश्रय एवं कभी ने मुरझाने वाले कमल के पुष्पों से युक्त थी। तदनन्तर नैमिषारण्यवासी ऋषियों से विदा होकर उनके आज्ञानुसार बलराम जी ब्राह्मणों के साथ कौशिकी नदी के तट पर आये। वहाँ स्नान करके वे उस सरोवर पर गये, जहाँ से सरयू नदी निकलती है। वहाँ से सरयू के किनारे-किनारे चलने लगे, फिर उसे छोड़कर प्रयाग आये; वहाँ स्नान तथा देवता, ऋषि एवं पितरों का तर्पण करके वहाँ से पुलहाश्रम गये। वहाँ से गण्डकी, गोमती तथा विपाशा नदियों में स्नान किया। इसके बाद गया में जाकर पितरों का वसुदेव जी के आज्ञानुसार पूजन-यजन किया। फिर गंगासागर संगम पर गये; वहाँ भी स्नान आदि तीर्थ-कृत्यों से निवृत्त होकर महेन्द्र पर्वत पर गये। वहाँ परशुराम जी का दर्शन और अभिवादन किया। तदनन्तर सप्तगोदावरी, वेणा, पम्पा और भीमरथी आदि में स्नान करते हुए स्वामिकार्तिक का दर्शन करने गये तथा वहाँ से महादेव जी के निवास स्थान श्रीशैल पर पहुँचे। इसके बाद भगवान बलराम ने द्रविड़ देश के परम पुण्यमय स्थान वेंकटाचल (बालाजी) का दर्शन किया और वहाँ से वे कामाक्षी- शिवकांची, विष्णुकांची होते हुए तथा श्रेष्ठ नदी कावेरी में स्नान करते हुए पुण्यमय श्रीरंग क्षेत्र में पहुँचे। श्रीरंग क्षेत्र में भगवान विष्णु सदा विराजमान रहते हैं। वहाँ से उन्होंने विष्णु भगवान के क्षेत्र ऋषभ पर्वत, दक्षिण मथुरा तथा बड़े-बड़े महापापों को नष्ट करने वाले सेतुबन्ध की यात्रा की। वहाँ बलराम जी ने ब्राह्मणों को दस हजार गौएँ दान कीं। फिर वहाँ से कृतमाला और ताम्रपणीं नदियों में स्नान करते हुए वे मलय पर्वत पर गये। वह पर्वत सात कुलपर्वतों में से एक है। वहाँ पर विराजमान अगस्त्य मुनि को उन्होंने नमस्कार और अभिवादन किया। अगस्त्य जी से आशीर्वाद और अनुमति प्राप्त परके बलराम जी ने दक्षिण समुद्र की यात्रा की। वहाँ उन्होंने दुर्गादेवी का कन्याकुमारी के रूप में दर्शन किया। इसके बाद वे फाल्गुन तीर्थ-अनन्तशयन क्षेत्र में गये और वहाँ के सर्वश्रेष्ठ पंचाप्सरस तीर्थ में स्नान किया। उस तीर्थ में सर्वदा विष्णु भगवान का सान्निध्य रहता है। वहाँ बलराम जी ने दस हजार गौएँ दान कीं। अब भगवान बलराम वहाँ से चलकर केरल और त्रिगर्त देशों में होकर भगवान शंकर के क्षेत्र गोकर्ण तीर्थ में आये। वहाँ सदा-सर्वदा भगवान शंकर विराजमान रहते हैं। वहाँ से जल से घिरे द्वीप में निवास करने वाली आर्यादेवी का दर्शन करने गये और फिर उस द्वीप से चलकर शूर्पारक-क्षेत्र की यात्रा की, इसके बाद तापी, पयोष्णी और निर्विन्ध्या नदियों में स्नान करके वे दण्डकारण्य में आये। वहाँ होकर वे नर्मदा जी के तट पर गये। परीक्षित! इस पवित्र नदी के तट पर ही माहिष्मतीपुरी है। वहाँ मनुतीर्थ में स्नान करके वे फिर प्रभास क्षेत्र में चले आये। वहीं उन्होंने ब्राह्मणों से सुना कि कौरव और पाण्डवों के युद्ध में अधिकांश क्षत्रियों का संहार हो गया। उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि अब पृथ्वी का बहुत-सा भार उतर गया। जिस दिन रणभूमि में भीमसेन और दुर्योधन गदायुद्ध कर रहे थे, उसी दिन बलराम जी उन्हें रोकने के लिये कुरुक्षेत्र जा पहुँचे। महाराज युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन ने बलराम जी को देखकर प्रणाम किया तथा चुप ही रहे। वे डरते

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